“ओ स्त्री!


“ओ स्त्री ,तुम चीखो अपने हक के लिए”
हां, यह सच है,,
तुम खुद ही हिचकती हो
निर्णय लेने से,,
न जाने क्यों
न जाने किससे
तुम डरती हो हर पल
ढूँढती हो एक ऐसा पुरुष जो,,
जो तुम्हारे निर्णय पर सहमति की मुहर लगा दे
रहती हो नींद में अधजगी सी,,
डरती हो,,घर में छिपे रावण से जो,,
यदा कदा दस शीश जैसा व्यवहार करता है
तुम बंध गई पुरुषों के बनाये नियमों में,,
दबा दिए गए तुम्हारी श्रेष्ठतर होने के बोध को,,
क्योंकि शोषण का चौखट ,,
लांघना तुमने सीखा ही नहीं
उठो ओ स्त्री,,
तुम चीखो बारम्बार,,
तोड़ दो उन सारे बंधनो को,,
जो तुमने पुरुष की इच्छाओं के इर्द गिर्द
केंद्रित किये हो,,
अपनी विवशताओं से आजाद हो,,
एक नये सृजन का संसार तुम्हारी प्रतीक्षा में है
– संगीता सिंह ‘भावना’
वाराणसी
”पहचान”
तुम्हारी खुद की कोई पहचान नहीं ,,
किसी की बेटी ,पत्नी,बहु,बहन ,माँ ही तुम्हारी
पहचान है…….
तमाम सुख सुविधा और ,,
ऐश्वर्य के वावजूद निरंतर एक तलाश
मैं कौन हूँ ……?
तिलमिलाहट और कुंठा में बीत जाता है
उम्र तमाम…….
एक निजी कोना ,,
जहाँ खुलकर साँस ले सको
अतीत जहाँ से कुछ स्पष्ट नजर नही आता
और भविष्य ,,,,,?
जिसकी उम्मीद पर जिए जा रही हो
घर की चहारदीवारी,
जहाँ तुम कैद हो खुद के ही चक्रव्यूह में
खोल दो अपने बंद जबान को और ,,
अपनी बुझी बुझी सी आँखों में,,
जगा दो एक जुनून हौसलों के ऊंचे उड़ान की
फिर देखो कैसे पल में सुलझते हैं
बरसों से बंद पड़े हर रास्ते….!!!
-संगीता सिंह ‘भावना’
वाराणसी