कविता : शायद कोरोना अनपढ़ है।

0
 शायद कोरोना अनपढ़ है।




पढ़े लिखो की दुनिया मे आकर

मचाया जिसने कोहराम है।

आस्तिक - नास्तिक का फ़र्क नही जानता

शायद कोरोना अनपढ़ है।

सभी धर्म और ज़ात - पात पर 

करता बराबर वार है।

धर्मस्थलो पर ताले जड़ दिए

दिखलाए अपनी ताक़त हैं।

क्या पंडित क्या मौलवी, पादरी 

किसी का न रखता मान हैं।

रीति - रिवाज़ों को नहीं मानता

कुछ ज्यादा ही होशियार है।

भीड़ जुटाने वालो को 

करता खबरदार है।

धर्मस्थल के लिए लड़ता मानव

अब लड़ रहा अपने वज़ूद से है।

जन्मकुंडली में भविष्य बाँचता

अब वर्तमान पर भी संशय है।

समय नहीं था परिवार के लिए

अब कहलाए फुरसतिया है।

उड़नखटोले मे उड़ने वाला

अब ज़मी को तरसे हैं।

भ्रष्टाचार से खूब धन उगाया

अब कर्मो से बेज़ार है।

अपनी ताक़त पर घमंड करता

अब कितना मजबुर है।

इंसान ने इंसानियत को कुचला

अब जीने को तरसे है।



    ✍ जया विनय तागड़े

Sach ki Dastak

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x