म्यांमार के बच्चों का दर्द और विश्व मौन – 

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संयुक्‍त राष्‍ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक 27 मार्च से अब तक कायिन प्रांत से करीब 3848 लोगों ने म्‍यांमार से थाईलैंड की सीमा में प्रवेश किया है। इस रिपोर्ट में थाई अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि उनकी सीमा में घुसे अधिकतर म्‍यांमार के नागरिकों की वापसी हो गई है जबकि 1167 लोग अब भी उनकी सीमा में ही हैं।
आपको बता दें कि म्‍यांमार में जारी राजनीतिक संकट की वजह से देश की आम जनता को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। उस पर हथियारबंद गुटों के हमलों से उनपर दोहरी मार पड़ी है।यूएन विशेषज्ञों का कहना है कि इस हिंसा की वजह से बच्‍चों में तनाव बढ़ गया है। इसका असर उनकी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ सकता है।
यूएन प्रवक्ता स्‍टीफन दुजैरिक का कहना है कि 1 फरवरी के बाद से अब तक अस्पतालों और स्वास्थ्यकर्मियों पर 28 बार हमले किए गए हैं जबकि 7 बार स्कूलों और वहां पर काम करने वालों पर हुए हैं। जबकि 2500 से अधिक प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया है, जिनमें से अधिकतर के बारे में उनके परिजनों को भी जानकारी नहीं दी गई है।
संगठन ने इस बात की भी आशंका जताई है कि मरने वाले प्रदर्शनकारियों की संख्‍या इससे कहीं अधिक हो सकती है।हिंसा का असर यहां के बाजारों में और सप्लाई चेन पर भी पड़ा है। इसकी वजह से वहां पर खाने-पीने की चीजों की कीमतें बढ़ी हैं। यदि ऐसा ही रहा तो वहां पर गरीब देशों का जीवन यापन मुश्किल हो जाएगा। गौरतलब है कि म्‍यांमार में 1 फरवरी की सुबह सेना ने वहां की लोकतांत्रिक सत्‍ता का तख्‍तापलट कर शासन अपने हाथ में लेकर क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं हैं। तब से ही म्‍यांमार की सड़कों पर सैन्‍य शासन के खिलाफ लोगों का विरोध प्रदर्शन जारी है।
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कार्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक अब तक इन विरोध प्रदर्शनों में सुरक्षाबलों के हाथों 568 के करीब लोगों की जान चुकी है। इनमें महिला और 43 बेकसूर बच्‍चे भी शामिल हैं जो घर से बाहर खेलने निकले और वापस न आ सके।
इन्हीं बच्चों में से एक नाम है दस साल की बच्ची ”आये म्यात थु” का। ”थु” इन दिनों दुनियाभर में म्यांमार में चल रहे सैन्य क्रूरता की पराकाष्ठा का पर्याय बन गई है। रविवार को उसके अंतिम संस्कार के मार्मिक दृश्यों ने दुनिया को झकझोर दिया।
बात 27 मार्च की है। शाम 5ः30 बजे थे। मौलाम्याइन शहर में थु अपने घर के सामने खिलौनों से खेल रही थी। कुछ दूरी पर ही खड़े पिता यू सोए ऊ ने बेटी को खाने के लिए नारियल दिया था। थु बमुश्किल पहला टुकड़ा खा पाई थी कि अचानक धड़ाम से गिरने की आवाज आई। ऊ ने मुड़कर देखा कि बेटी पेट के बल सड़क पर गिरी है और नारियल उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरा। अगले ही पल ऊ को खून की तेज धार बहती दिखी।
असल में थु के कनपटी पर गोली आकर लगी थी। पिता उसे लेकर अस्पताल भागे, लेकिन घंटेभर में उसकी मौत हो गई।रिहायशी इलाकों में फायरिंग पर दुनिया भर में सवाल उठ रहे हैं। 
वहीं, एक निगरानी संगठन के मुताबिक, एक फरवरी को हुए तख्तापलट के बाद अब तक 550 से ज्यादा लोग सुरक्षाकर्मियों की गोलियों का शिकार बने हैं। इनमें सड़क किनारे खड़े लोग भी हैं। मारे गए 40 से ज्यादा लोगों की उम्र 18 साल से कम थी।थु की मां दाव टोए टोए विन कहती हैं, हमने बेटी को अपनी आंखों के सामने दम तोड़ते देखा है। हमें न्याय कौन देगा। हम कहां और किससे बदला लें। थु के चाचा यु थेन युआंत कहते हैं कि मेरा वश चले तो मैं दोषी फौजियों की चमड़ी उधेड़ दूं, उन्होंने हमारी ‘परी’ को छीन लिया। पिता सदमे में हैं।
यह बच्ची अक्सर टिकटॉक पर बनती थी राजकुमारी जिसे सेना की क्रूर सत्तात्मक महत्वाकांक्षा ने छीन लिया। यह बच्ची एक रात अपनी मां से पूछ रही थी कि अपने देश में क्या हो रहा है? लोग क्यों मारे जा रहे हैं? नहीं पता था कि क्रूरता की बलबेदी पर उनकी ही बच्ची भेंट चढ़ जायेगी। अब सवाल यह उठता है कि इतना बड़ा विश्व और वह भी मौन?
सोचो! विश्व के सब लोग मिलकर इस अमानवीयता पर एक साथ आ जायें तो इस हिंसा का कोई विकल्प जरूर निकल सकता है पर यह उदासीनता कि यह तो दूसरे देशों की बातें हैं, हम क्या करें? यही बातें उस समय भी सोचीं गयी जब सीरिया में कत्लेआम मचा था और वही आईएसआईएस आतंकी संगठन धीरे-धीरे हर देशों की सीमाओं को पार गया जिसका भुगतभोगी खुद अमेरिका है।
बात सिर्फ़ इतनी है कि अगर पड़ोस में या कहीं भी कुछ अमानवीय कृत्य हो रहा है तो उसकी आंच कब खुद तक आ पहुंचे यह कोई नहीं जानता क्योंकि बुराई भी एक भयंकर वायरस है। विडम्बना है कि आज तक किसी भी राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्र में बच्चों के हितों से जुड़े कॉलम नहीं होते। यह माना कि बच्चे फूल होते हैं पर वह बगीचा लगाने की क्षमता रखते हैं। बच्चे देश का ही नहीं बल्कि विश्व का सुनहरा भविष्य होते हैं।
पहली अप्रैल को जब ख़बर आई कि म्यांमार में तख़्तापलट के बाद 2 महीने में 43 बच्चों की मौत हो चुकी है तो लगा कि काश ‘सेव द चिल्ड्रन’ (बच्चों के अधिकार के लिए काम करने वाली संस्था) की ये ख़बर गलत होती लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि म्यांमार में सेना अपने विरोधियों को रौंद रही है जिसकारण निर्दोष बच्चे भी शिकार होते जा रहे हैं।
म्यांमार में इतना सब हो रहा पर अमेरिका चुप है तमाम विश्व शांति और मानवाधिकार संगठन मौन हैं? यहां तक कि यूएन भी बच्चों की मौतों पर एक्शन नहीं ले रहा। एक समय था जब प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 43 वर्ष की ब्रिटिश महिला एग्लैन्टाइन जेब ने जब अखबारों में जर्मनी और ऑस्ट्रिया के भूख से मरते बच्चों की तस्वीर देखी तो वो रो पड़ीं।
दरअसल इंग्लैंड और उसके मित्र देशों ने अपने शत्रु देशों का राशन रोक दिया था। जेब ने अपने ही देश की इस अमानवीय हरकत के खिलाफ आवाज़ बुलंद की तो उन्हें कोर्ट में पेश किया गया।
इस ‘कसूर’ के लिए जेब पर जुर्माना किया गया लेकिन जज बच्चों के प्रति जेब के करुणा भाव से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने पॉकेट से जुर्माना भर दिया। यही जुर्माना ‘सेव द चिल्ड्रन’ का पहला चंदा था और यही थीं वो एग्लैन्टाइन जेब जिन्होंने इस संस्था की स्थापना की। जेब का कहना था कि किसी भी विपत्ति में बच्चे का पहला अधिकार है कि उसे सबसे पहले राहत मिले।
दर्दनाक है कि ‘सेव द चिल्ड्रन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार 2013 से 2017 के बीच दुनिया के 10 हिंसाग्रस्त देशों में 5.50 लाख बच्चे मारे गए यानी हर वर्ष हिंसक संघर्ष में औसतन दुनिया के 1 लाख से ज्यादा बच्चों की मौत हो रही है. इस संस्था की पूर्व सीईओ हेले थोर्निंग (जो डेनमार्क की प्रधानमंत्री रह चुकी हैं) ने इस रिपोर्ट को पेश करते हुए कहा था कि ‘नैतिकता का सिद्धांत बहुत स्पष्ट है।
आप बच्चों पर हमला नहीं कर सकते लेकिन नैतिकता के मामले में हम 21वीं सदी में आकर भी पीछे जा रहे हैं’।तो ऐसे में सवाल उठता है कि घोर अमानवीयता के इस दौर में क्रूर अश्वत्थामाओं को सजा-ए-मौत मिलने की उम्मीद की जाए या नहीं?1924 में लीग ऑफ नेशंस (बाद में जिसकी जगह यूनाइटेड नेशंस यानी संयुक्त राष्ट्र ने ली) के जेनेवा सम्मेलन में एग्लैन्टाइन जेब ने बच्चों के अधिकार पर अपना छोटा सा दस्तावेज़ पेश किया. इसे याद रखना और पढ़ना बेहद आसान और ज़रूरी है।
जेब ने कहा कि, ‘अगर बच्चा भूखा है तो उसे खाना खिलाइए, अगर बच्चा बीमार है तो उसकी देखभाल कीजिए, अगर वो पिछड़ गया है तो उसकी मदद कीजिए, अगर उससे कोई गलती हो गई है तो उसमें सुधार कीजिए और अगर वो अनाथ हो गया है तो उसे आसरा दीजिए’।
जेब का ये विचार बच्चों के मानवाधिकार के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ. संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने 20 नवंबर 1989 को जो ‘बाल अधिकार समझौता’ (सीआरसी) पारित किया, उसकी मूल आत्मा यही है।
2 सितंबर 1990 को ये समझौता अमल में आया। इस पर दुनिया के 193 देशों के हस्ताक्षर हैं। म्यांमार ने भी इस पर 1991 में साइन किया था, जिसका मतलब हुआ कि वो इसके पालन के लिए वचनबद्ध है लेकिन म्यांमार या सीरिया या इराक के बच्चों की आवाज़ इस दुनिया में किसे सुनाई पड़ रही है जब उनके ही देश के मुखिया उन्हें खुली आंखों से बर्बाद होता देख रहे हैं।
देखने योग्य बात यह है कि अमेरिका, सोमालिया और साउथ सूडान के साथ उस अघोषित ‘ग्रुप-3’ का सदस्य है, जिसने बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र के समझौते को मंज़ूरी नहीं दी है।
2008 में तब के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने खुद कहा कि ‘अमेरिका को सूडान के साथ खड़ा देख शर्मिंदगी होती है.’। CRC का आर्टिकल 19 कहता है कि किसी भी देश को ऐसे कानूनी, प्रशासनिक, सामाजिक और शैक्षिक उपाय बरतने चाहिए, जिनसे बच्चों के ख़िलाफ़ कोई शारीरिक या मानसिक हिंसा ना हो, बच्चे जख्मी ना हों, कोई बच्चों को अपशब्द ना बोल पाए और उनका यौन शोषण भी ना हो सके लेकिन जब इन बुनियादी बातों की ही परवाह नहीं तो म्यांमार और सीरिया के बच्चों का तो ऊपरवाला ही है?
इस पर संयुक्‍त राष्‍ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक 27 मार्च से अब तक कायिन प्रांत से करीब 3848 लोगों ने म्‍यांमार से थाईलैंड की सीमा में प्रवेश किया है। इस रिपोर्ट में थाई अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि उनकी सीमा में घुसे अधिकतर म्‍यांमार के नागरिकों की वापसी हो गई है जबकि 1167 लोग अब भी उनकी सीमा में ही हैं।
आपको बता दें कि म्‍यांमार में जारी राजनीतिक संकट की वजह से देश की आम जनता को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। उस पर हथियारबंद गुटों के हमलों से उनपर दोहरी मार पड़ी है।यूएन विशेषज्ञों का कहना है कि इस हिंसा की वजह से बच्‍चों में तनाव बढ़ गया है।
इसका असर उनकी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ सकता है। यूएन प्रवक्ता स्‍टीफन दुजैरिक का कहना है कि 1 फरवरी के बाद से अब तक अस्पतालों और स्वास्थ्यकर्मियों पर 28 बार हमले किए गए हैं जबकि 7 बार स्कूलों और वहां पर काम करने वालों पर हुए हैं। हिंसा का असर यहां के बाजारों में और सप्लाई चेन पर भी पड़ा है। इसकी वजह से वहां पर खाने-पीने की चीजों की कीमतें बढ़ी हैं।
यदि ऐसा ही रहा तो वहां पर गरीब देशों का जीवन यापन मुश्किल हो जाएगा। कुछ लोग सोसलमीडिया पर सवाल कर रहे हैं कि भारत तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और म्यांमार में चलने वाली लोकतंत्र की लड़ाई पर भारत ने सोची-समझी चुप्पी क्यों साध रखी है?
वहीं, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर टिप्पणी करने वाले विदेशी (अमेरिकी) जर्नल द डिप्लोमेट ने भारत की म्यांमार नीति को खतरनाक कहते लिखा है कि “भारत म्यामार के सैन्य सत्ता-प्रतिष्ठान (इसे तत्मादाव बुलाया जाता है) की तुष्टीकरण की नीति पर चल रहा है।
भारत की यह नीति विरोध-प्रदर्शनों को भड़का सकती है और शायद भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों में राष्ट्र-विरोधी ताकतों को भी हवा दे सकती है।” टाईम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक भारत ने मार्च के आखिर में म्यांमार के सेना-दिवस की परेड में शिरकत की, म्यांमार स्थित अपने मिलिट्री अटैशे को आयोजन में भाग लेने के लिए भेजा। तथ्य तो यह है कि अपनी ही जनता को कुचलने वाली म्यांमार की सेना के लिए भले ही सैन्य-दिवस की परेड ऐतिहासिक महत्व (1945 के जापानी कब्जे के खिलाफ सेना की बगावत) की हो लेकिन इस सालाना जलसे को इस बार लोकतांत्रिक देशों ने भाव नहीं दिया।
आयोजन में शिरकत करने वाले कुल आठ देशों (भारत,रुस, चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान, लाओस, वियतनाम और थाईलैंड) में सिर्फ भारत ही एकमात्र लोकतांत्रिक देश था।इस पर मैं यही कहूंगी कि म्यांमार में फौज का शासन रहे या फिर वहां लोकतांत्रिक राज-व्यवस्था कायम हो जाये, भारत के पास अपना पड़ोस बदलने का कोई विकल्प नहीं है। तथ्य यह है कि एक पड़ोस के रुप में म्यांमार भारत के लिए किसी पुल की तरह है।
वह दक्षिण एशिया को दक्षिण-पूर्वी एशिया से जोड़ता है और इस नाते भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी की कामयाबी तय होती है।
बात यह भी है कि भारत से किनारा करके स्वतंत्र राज कायम करने का सपना देखने वाले अतिवादियों के लिए म्यांमार एक सुविधाजनक शरणगाह है।
1643 किलोमीटर लंबी सीमारेखा दोनों देशों को एक-दूसरे से जोड़ती है।भारतीय मूल के लगभग ढाई लाख लोग म्यांमार में रहते हैं और सीमावर्ती इलाके में बसाहट ऐसी है कि कई दफे एक परिवार रहता म्यांमार में है लेकिन उसे वोट डालने के लिए भारत आना होता है। अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम म्यांमार से एकदम सटे हुए हैं और नगा तथा मिजो लोगों में बहुतों के नाते-रिश्ते म्यांमार के निवासियों से हैं।
भौगोलिक रुप से महत्वपूर्ण बंगाल की खाड़ी भी दोनों देशों को एकदम करीब लाती है जिसके अंडमान निकोबार द्वीप-समूह और म्यांमार के हिस्से में आने वाले टापुओं के बीच की दूरी महज 30 किलोमीटर है।
म्यांमार के बंदरगाह से भारत अपने पूर्वोत्तर के राज्यों तक बड़ी तेजी से पहुंच बना सकता है, जो इस इलाके में चीन के हस्तक्षेप को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण है। दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के संगठन आसियान का सदस्य बनने (1997) के बाद म्यांमार के सहारे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत की पहुंच सुगम हुई है। और, एक बात ये भी है कि म्यांमार चीन का पड़ोसी है और इस नाते म्यांमार के सहारे भारत चाहे तो चीन के दक्षिणी हिस्से तक पहुंच सकता है।
तख्तापलट पर भारत की सहजता एक समझौते के तहत है। बात  1992 की है जब  फरवरी और अगस्त के महीने में दोनों देशों के विदेश मंत्रालय के बीच भावी रिश्ते की बुनियाद रखी गई ।
दोनों देश तीन बातों पर राजी हुए। एक तो ये कि म्यांमार लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर भारत की पक्षधरता का सम्मान करता है लेकिन म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली हो, इस बात में भारत धीरज और संयम का परिचय देगा।
दूसरे, म्यांमार और भारत के बीच सुरक्षा संबंधी सरोकारों का साझा है और म्यांमार दोनों देशों की सामरिक तथा रणनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए साझेदारी में कदम उठाएगा। और, इस सिलसिले की तीसरी बात थी दोनों देशों के बीच आर्थिक तथा प्रौद्योगिक मामलों में आपसी सहयोग।
साल 1999 के जुलाई तक भारत के तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी कह चुके थे नगा उग्रवादियों ने म्यांमार में जो कैंप बना रखे हैं, उसे नष्ट करने में म्यांमार की सेना भारत का सहयोग कर रही है।म्यांमार से बढ़ता यही रिश्ता आगें बढ़ते हुए सड़क, बिजली, हाइड्रो-कार्बन, ऑयल- रिफाइनरी, ट्रांसमिशन लाइन्स, दूर-संचार तथा सूचना-प्रौद्योगिकी की परियोजनाओं में सहयोग तक चला आया है और म्यांमार में भारत का निवेश बढ़ता गया है।
यह तो हुई भारत – म्यांमार रिश्तों की बात पर भारत कभी भी किसी भी तरह की क्रूरता का समर्थन नहीं करता। यह बात म्यांमार को भारत के पड़ोसी पाकिस्तान से जान लेनी चाहिए और भारत म्यांमार के बच्चों के दर्द के साथ है क्योंकि भारत समझौतेरूपी नयी लकीर बनाता भी जानता है वह दूसरों की लकीर का फकीर नहीं।
             _✍️ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
               न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक
The whole world should feel the pain of Myanmar’s children.
– Blogger Akanksha SAXENA, News Editor sach ki dastak magazine, India 

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