मन निशब्द


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मौन हुए शब्द,कलम भी निशब्द है।
अंतरात्मा क्षुब्द,दिमाग भी ध्वस्त है।।
मन की चीख़ों की मन मे मौत हो गयी।
दिल की अग्नि लगभग शिथिल हो गयी।।
जिज्ञासाओ का यौवन भी प्रौढ़ हो गया।
बनते जहाँ स्वप्न,वो शयनकक्ष खो गया ।।
अपनेपन की एक तस्वीर तराश रहा हूँ।
बुझे चूल्हे पर गर्म रोटियां बना रहा हूँ।।
सच्चे मन की बोली अब व्यर्थ हो गयी।
झूठे चेहरे की बोली अब सही हो गयी।।
बस अब जीवन को अपने मौन कर लिया।
पहले ही जीवन मे कौन अपना था,
सन्नाटों में अपना अलग जॉन कर लिया।।
मन से हारा
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रोशनी अंधेरा ओढ़े खड़ी है।
उम्मीदे जमीन पर पड़ी है।।
कदम पीछे की और पड़ रहे है।
भयानक साये आगे बढ़ रहे है।।
काल के पंजो में परिंदा फसा है।
उड़ने की आस पर पंख बंधे है।।
काल के हाथों ये दम तोड़ जाएगा।
मन से हारा हुआ जान कैसे बचाएगा।।
तन से हारा तो फिर भी उठ जाएगा।
मन से हारा खुद से ही मात खायेगा।।
लोग आजकल
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आग की लपटों के नीचे एक राख सी है।
बर्फ पिघल रही है मगर एक भाप सी हैं।।
यूं तो रोशनी हर तरफ उजाला फैलाती हैं ।
लेकिन लोगो के खुले जख्मो को दिखाती है।।
माना ये अंधेरा एक सन्नाटा सा लपेटे है।
पर ना जाने कितने दर्दो को अंदर समेटे है।।
घर की पुरानी दीवारों का रंग कुछ उड़ा सा है।
लेकिन इनमें माँ बाप का आशीर्वाद जुड़ा सा है।।
नए की चाहत में किसी के पुराने सपनो को उधेड़ रहा है।
माँ के हाथों के बुने स्वेटरों को घर से खदेड़ रहा है।।
हरेक दिखावे के लिए बैठा है भगवान की शरण मे आजकल।
घर बैठे माँ बाप के सपनो का हरण कर रहा है
आजकल।।
क्या हो गया है लोगो को आजकल।
रोज नए रिश्तों की चाहत में पुराने
रिश्तों की खाल उतार रहा है।।
लेखक परिचय
*नाम – नीरज त्यागी*
*EMAIL ID – neerajtya@yahoo.in एवं neerajtyagi262@gmail.com
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश )