शेल्टर होम में कैद स्त्री अस्मिता –

———————-

बलात्कारी युग में
मरे हुए मनुष्यों की जमात
गा रही हैं विरुदावलियां
देश और उसकी संसद का
जारी है अब तक
उसका अंतहीन मौनरुदन
जैसे सिल दिए गये होंठ से
बुदबुदाना ही
अब समय की हो गयी है
अपनी पहचान..

स्त्री अस्मिता पर
हो रहे बर्बर प्रहार के बीच
खौफनाक मंजर में
जी रही हमारी सभ्यता का
उघड़ चुका है
छद्म मुखौटा.

शेल्टर होम अब आ चुके
खूनी भेडियों के शिकंजों में
जहां अबोध जिंदगियां
सिसक रही हैं
पिंजरे में बंद पंक्षी के मानिंद..

शेल्टर होम में
कैद स्त्री-अस्मिता
तलाशती है
उन्मीदों के नए पंख,
इस सदी के
स्याह हो चुके समय में
अनेक जिन्दगियां
चाहती हैं अब खुला आसमान…

2- समय के सच के साथ

—————–
विचारधाराओं की
टकराहट से उपज रहे
खतरनाक माहौल के बीच
दरक रही हमारी एकता
और निरन्तर
चल रहे द्वंद्व में पिस रही
दो पीढ़ियाें की
अपार सम्भावनाएं.

सिमट रहे
मानवीय संवेदना के दायरे
बदल रहे परिदृश्य में
असंगत जाति और संप्रदाय
रंगों में डूबकर
बन गये हैं ,ईहमारी पहचान.

अंदर ही अंदर
हो रहे उथल- पुथल को
समझना होगा सिरे से
राजनीतिक षडयंत्रों के
यथार्थ को समझते हुए
अब समय के सच के साथ
बढ़ना होगा आगे.

पहचानने होंगे
नीति-नियंताओं के कुचक्र
जो सुलगाना चाहते हैं
समाज के बीच का
आपसी सौहार्द
दहशत की भयंकर लौ में
झोंक देना चाहते हैं
देश की सांस्कृतिक विरासत…

3 – स्याह होती उम्मीदें
—————–

किसी भी शहर या कस्बे की
सड़क की पुलिया
या फुटपाथ के किनारे
बने हुए झोपड़ीनुमा तम्बू में
जीवन की जद्दोजहद
अलसुबह ही शुरू हो जाती है.

जलने लगती हैं भट्टियां
लोहे को पीटने वाले
लोहे को सुर्ख लाल बनाकर
ढाल देते हैं
खुर्पी, फावडे़, चिमटा, करछुली,
और धारदार हथियार.

युवतियां हाथ में लेकर
भारी हथौड़ा
दिन के उजाले से लेकर
सांझ के ढलने तक
पीटती हैं लोहा,
मटमैले से भावों में
गुम हो जाती हैं
जीवन की स्याह होती उम्मीदें.

सारे आकाश को
अपने सिर उठाये
दर- ब -दर भटक रहे लोगों को
शहर देखता है
हिकारत भरी नज़रों से
शहरी बस्तियां
बोझिल हो रही जिन्दगी को
देख लेती प्रश्नवाचक मुद्रा में,
देर-सबेर आते- जाते राही
देख लेते हैं
झांकते हुए बच्चों को
जो खेलते है मिट्टी में सने नंग- धडंग.

धंसता हुआ – सा धरातल
लगता है उनका जीवन
जहां श्रमकणों का मूल्य
मिट्टी के मोल बिक जाता है
ग्लोबल होती दुनियां में
बाजार के इर्द – गिर्द
जिजीविषा से जूझते
भटकते हैं
लोहा पीटने वाले बंजारे…

रचनाकार परिचय-
डॉ शिव कुशवाहा ‘शाश्वत’
जन्मतिथि- 5 जुलाई , 1981
शिक्षा – एम ए (हिन्दी), एम. फिल.,नेट, पीएच.डी.
प्रकाशन-
प्राची, ककसाड़, कविकुम्भ, युद्धरत आम आदमी, दलित अस्मिता, दलित वार्षिकी 2016 , सच की दस्तक, लहक, तीसरा पक्ष, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, अम्बेडकर इन इंडिया, कलमकार, नवपल्लव , लोकतंत्र का दर्द , पर्तों की पड़ताल, शब्द सरिता, निभा, नवोदित स्वर , ग्रेस इंडिया टाइम्स , अमर उजाला काव्य, हस्तक्षेप आदि
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर काव्य रचनाएं प्रकाशित ।
सम्प्रति- इण्टर कॉलेज में प्रवक्ता हिंदी
जनपद- फिरोजाबाद ( उ. प्र)
E mail- shivkushwaha.16@gmail.com

Sach ki Dastak

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x