कुमाऊँ में जन्म से पूर्व और एक वर्ष तक यानि प्रथम जन्मदिन तक कई उत्सव आयोजित होते हैं। यथा—पुंसवन (जन्म से पूर्व ), जन्म के बाद जातकर्म, छठी, नामकरण, अन्नप्रासन, जन्मोत्सव। इन अवसर पर होने वाले संस्कारों में गीत गायन की प्रथा है।
संस्कार गीत संस्कारों की अमूल्य निधि है। यदि ये गीत न होते तो हमारी संस्कृति, भाषा और पर्व आदि में आनंद-उत्साह का अभाव रहता। इसका दायितत्व संभाले हुये हैं महिलाएँ ।
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय ने लोक गीतों के सम्बंध में अपने उदगार व्यक्त करते हुये कहा था-“जो भी इन गीतों को पढ़े-लिखे व्यक्तियों के सन्मुख सजीव रखेगा वो ही देश और हिन्दू संस्कृति की टहल करेगा। और इस टहल अथवा सेवाकार्य में तमाम राज्यों के ग्राम्य क्षेत्रों में अपनी संस्कृति की वाहक महिलाएं संस्कार गीतों की बानगी चमकाए हुए हैं। यही वजह है आज भी क्षेत्रीय भाषा, कला तथा संस्कृति को संरक्षण प्राप्त है।”
वास्तव में युगों से देशभर में लोक -संस्कार गीत आज भी सुरक्षित हैं तो महिलाओं द्वारा ही। आजकल डीजे का युग है फिर भी शगुन के नाम पर शहरों में गीत प्रचलन में हैं लेकिन ग्रामीण जन जीवन में संस्कार गीतों की बानगी आज भी देखी जा सकती है। आज भी पारिवारिक एवं सामाजिक उत्सवों, जन्म -पर्वोत्सवों में महिलाएं ही संस्कार गीत गाती हैं।
उत्तराखण्ड में कुमाऊँ मण्डल राजनीतिक प्रबन्धानुसार और विद्वानों के द्वारा आंकलन , अध्ययनानुसार यह खूबसूरत क्षेत्र अपने भौगोलिक, सांस्कृतिक स्वरूप के साथ साथ आध्यात्मिक रूप से भी सम्पन्न मण्डल है। यहाँ उच्च शिखरों-रमणीय घाटी,सर्पाकर सड़कों और अविरल प्रवाहित धाराओं में संस्कृति व संस्कारों की छ्णमणनाहट गुंजायमान है।
आजीवन संस्कारोंत्सव की विभिन्न बेलाओं में नृत्य व गीतों की बानगी देखते ही बनती है।आध्यात्म और परंपरा के मध्य सूत्र रूप में ये जो गीत हैं, मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी डालते हैं। परिवार में संतान का जन्म एक परिवार या समाज का नहीं देश के कर्णधार का जन्म माना जाता है । ऐसे में परिवार की प्रसन्नता और बहुत सी बातें साधिकार गूँजती हैं ।
प्रसन्नता की पराकाष्ठा व्यक्त करते हुये भविष्य में सुख समृद्धि की आशा सँजोई जाती है । ऐसे सुखद गीतों में सीख, व पारिवारिक-व्यवहार, स्वभाव, प्रसव -वेदना, सास -ननद आदि का नेग मांगना और तमाम वे प्रसंग जिनमें परिवार-समाज की सहभागिता सुनिश्चित रहती है।
गीतों में बैठ -गीत(बड़े गीत)सोहर , बधाई, चरुवा, छठी, नारिंग, पालना व सार आदि अनेक गीत हैं।
लोक भाषा में गाये जाने वाले गीत मौखिक परम्परा में गीत ही नहीं संस्कारों, भाषा व संस्कृति को जीवित रखने हेतु एक माध्यम भी है। यहाँ भौगोलिक कारणों से भाषा-शब्दों में लय में भिन्नता जरूर है लेकिन संस्कार गीतों तथा विभिन्न अवसरों पर देव-आवाहन-, आमंत्रण, हेतु गीतों में साम्यता है।
कुमाऊँ में जन्म -संस्कार -गीतों का संक्षिप्त अवलोकन प्रस्तुत है —
संस्कार गीत गायन के संदर्भ में-प्राचीन काल से संस्कार गीत गाने की पूरी ज़िम्मेदारी महिलाओं की ही रही है। इसके मूल में कथन है –“पूजा कर्म कांड में पुरुष की भूमिका अहम मानी गई है। यह भी कहा जाता है महिलाएं व्यवहारिक, करुणामय होती हैं। उनमें चोंसठ (64) योगिनियों की छवि कामकाजों में सिद्धि दिलाने वाली कही जाती हैं। यही वजह है कि कुमाऊँ में आमंत्रित गिदारियों को तिलक लगाकर उनको ससम्मान भेंट दी जाती है।
गीतों का उल्लेख करने से पूर्व यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ -कुमाऊँनी संस्कार गीतों में देश के अन्य प्रान्तों की छवि भी दिखाई देती है।
इसका कारण विदेशी आक्रांताओं से बचने हेतु गुफाओं में शरण लिए लोग एवं तीर्थाटन, अनुष्ठान हेतु आए लोग हैं जो यहीं बस गए । कुमाऊँनी संस्कार गीत मंत्रोंचार के साथ चलते हैं । यथा स्वस्तिवाचन मंत्र आरंभ होते ही संवेत स्वर में महिलाएं गीत गाती हैं –“शकुना दे , काज ये अतिनीक, सो रंगीलों पाटल, पैरी रेना, अंचली, कमल को फूल, सोई फूल मोलावंती गणेश, रामिचन्द , लछिमन जीवा जनम आद्या अमरू होई ।”
उपरोक्त शगुन गीत प्रत्येक पूजा -अनुष्ठान, जन्मोंत्सव-संस्कारों में सबसे पहले गाया जाता है। प्रत्येक शुभ कार्य में देवताओं , पितरों का आह्वान , प्रकृति तथा कार्य में सम्मिलित सभी को आमंत्रित किए जाने हेतु गीत बने हैं।
“प्रातः नोंत्यों मू काज, सूरज किरण को अधिकार, संध्या न्यूत्यों म काज -चन्द्र किरण को अधिकार ।
ब्रह्मा बिष्णु नोंत्यों मु काज, ब्रामह बिष्णु सृष्टि रचाए …”। इस प्रकार कुम्हारिन, अहीरन, मालिन, गुजारिन, धिबरिन, जुरिया , बढ़ैया, बंधु बांधव सभी को आमंत्रण दिया जाता है । इसी तरह पितरों का आह्वान किया जाता है –“जारे भँवरा माथि लोका न्युतिए” ।
पितरों द्वारा अपनी संतान को आशीष गीत –“कीर्ति मण्डल ओबरी दिया जलो है”। ऐसे गीत संस्कारों की रौनक तो बढ़ाते हैं मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी डालते हैं । काज में सबकी उपस्थिति सौहार्द भाव को बल देती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारी सुरक्षार्थ देव- पितर हमारे मध्य हैं। बंधु -बांधव का साथ हैं । माॅरल सपोर्ट मिलता है।
इन गीतों की रचना किसने की, साक्ष्य नहीं हैं लेकिन इन गीतों में सीख , भविष्य के संकेत, आशीर्वाद, परिचय, मान-मानोव्वल, उलहाना व शिकायत , सामाजिक सहभागिता, पारिवारिक व्यवहार , प्रसव वेदना आदि परिस्थितियाँ शामिल रहती हैं ।
साथ ही भाषा-शब्द भी सुरक्षित हैं । मंत्रोंच्चार के साथ चलने वाले गीतों के अलावा साज-बाज के साथ गाए जानेवाले गीत जिनमें सीख, बिहाई , नारंगी सोहर , शोभन व आशीष के गीत शामिल हैं।
सीख -गीत का एक उदाहरण –
रसरिया रेशमी जल भरने हिलोर हिलोर
रेशम रसरिया जब नीक लागे जब छोटी गगरिया होय
छोटी गगरिया तब नीक लागे जब छोटी दुलहनिया होय
छोटी दुलनिया तब नीक लागे जब गोदी में बच्चा होय
गोदी में बच्चा तब नीक लागे जब महल दुमहला होय
महल दुमहला तब नीक लागे जब धन और संपत्ति होय
धन और संपत्ति तब नीक लागे जब देने में सुमति होय।
मनौवैज्ञानिक प्रभाव डालने वाले गीत की एक बानगी —
धन्य धन्य तेरी गोद माता जनै सुत योद्धा
जैसे जने कौशल्या ने श्रीराम, सुमित्रा ने शत्रु -लक्ष्मण
जैसे जने केकई ने भरत बीर योद्धा एसोई जने तुम बीर योद्धा
इस प्रकार त्रेता, द्वापर के वीर माताओं-योद्धाओं का नाम लेकर प्रसूता को वीर माता का अहसास कराकर संतान को योद्धा बनाने हेतु प्रेरित किया जाना रहा होगा।
सोहर-गीत में परिचय दोनों परिवारों के सदस्यों का परिचय की बानगी देखिए-
जच्चा महर महर हरे वा करे
जच्चा किसकी आंगनी केवड़ा,किसकी आँगन दाख
राजा दसरथ आंगनी केवड़ा बाबुल जनक की आंगनी दाख
जच्चा किसकी हो तुम कुलवधू किसकी हो तुम धीय
राजा दसरथ की हम कुलवधू बाबुल जनक की हम धीय
इसी तरह शोभन है –
बाधावा नन्द के घर आज, न्योढि न्योढि सुघड़ नयनिया नगर बुलावा दे।
सब सखीयन से यों जा कहिए हरि को जनम भए
आज अपने अपने महल के भीतर सब सखि करें सिंगार,
पाटी पाढे मांग सँवारे मोतियन लड़ छिटकाय ।
कुमाऊँनी जन्मोत्सव में अधिकांश गीतों में त्रेता एवं द्वापर युगीन परिस्थितियों, परिवेश व श्रीराम , कृष्ण के प्रसंग से जुड़े गीत गाये जाते हैं। दरअसल, श्रीराम और श्रीकृष्ण कुमाऊनी लोक मानस के महानायक हैं। अतः सांस्कृतिक संदर्भ में श्रीराम और श्रीकृष्ण तथा आध्यात्म भाव में शिव की उपस्थिती के साक्ष्य मिलते हैं । इससे ज्ञात होता है संस्कार गीतों में श्रीराम-श्रीकृष्ण की उपस्थिति यहाँ के लोकजीवन में श्रीराम के जैसे मर्यादा का पालन करने वाली तथा श्रीकृष्ण जैसे युग पुरुष के समान संघर्षशील , कर्मयोगी संतान प्राप्ति की चाह रही है।
पुत्र की कामना सांस्कृतिक जीवन में अहम है किन्तु कन्या की उपस्थिती कुमाऊँ समाज में अनिवार्य रही है। हमारे पर्व त्योहारों,उत्सवों में लड़कियों की उपस्थिती परिवार को विशेष दर्जा दिलाती है ।
फिर भी पुत्र कामना और बारंबार कन्या जन्म पर परिवार में व्यवहार की झलक इस गीत में स्पष्ट है –
आज मंगल की रात माई ,
जो दिन हमरे लाड़ी जनम भयी, रोवत रही सारी रात माई
सासु हमरी मुख से न बोले , ससुर चले पेरदेश माई
जब हमरे लला भए हंसत रहे सारी रात माई
सासु हमरी खुशियाँ मनाए, ससुर करें गोदान माई
इसके विपरीत कन्या जन्म को अहमियत भी दी गई है
कन्या जनम सुखदाई जज्जा के लिए भरी किस्मत लेके आई जज़्जा के लिए |
बिटिया के दादी मत करो चिंता भर भर किस्मत लेके आई दादा के लिए।
इस प्रकार गीत अवसरानुसार बने हैं। इन गीतों के माध्यम से महिलाओं ने तत्कालीन परिवेश, परिस्थियों को उजागर किया है। आजकल कोरोना चल रहा है। महिलाओं द्वारा संस्कारों के अनुरूप गीत बनाए जा रहे हैं।
यथा जन्मोत्सव का एक गीत –
ननदिया सोच समझ कर आना,आया कोरोना का जमाना,
गली गली में फैला है कोरोना आया लाकडाउन का जमाना, मुंह में माक्स पहन कर आना, साथ में सेनेटाईजर लाना, अपने बच्चों को न लाना…भीड़ बढ़ेगी तो होगा कोरोना फिर दोष हमें मत देना ।
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