पर सवाल यह है कि पापी कब से नैतिक होने लगे? वही अलाप, नैतिक सापेक्षवाद बनाम नैतिक निरपेक्षवाद की यह बहस दार्शनिक और साहित्यिक चर्चा के लिए भले ही लाजवाब हो, परंतु न्यायिक सिद्धांत के रूप में नैतिकता पर न्यायतंत्र का तटस्थ भाव और वह भी सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर गंभीर चिंता और मंथन का विषय है। इस भाव में जहां सदाचार और विधि सम्मत आचरण के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है, वहीं अपराध के प्रति भय बनाने में ऐसी धारणा प्रभावहीन और लचर, बेबसी सिद्ध करती हुई प्रतीत होती है । आपने देखा कि ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में जज साहब ने कहा कि उनके परिवार को उनकी सुरक्षा की चिंता हो रही है, उनको जान का खतरा है। तो सोचो! जज साहब ऐसे कहेगें तो आमजन कहाँ खड़ा होगा। वहीं बुराई का मनोबल का रेंज कहाँ होगा? न्याय के जिस पुनर्स्थापनात्मक सिद्धांत को इस केस में प्रतिपुष्ट किया गया, वह भी कम दुविधाजनक नहीं है।
हर अपराध के लिए दंड और समानुपात सजा का प्रावधान दर्शाता है कि प्रतिशोध न्याय का मुख्य आयाम है और उसकी दिशा के कोण किस तरफ़ आरोपित होगें या आरोपित किये जायेगें? दूसरी तरफ अपराधी को सुधार का मौका देने के हिमायती पुनर्स्थापनात्मक सिद्धांत में भी अपराधी और पीड़ित या उसके परिजनों के बीच वार्ता एक अहम बिंदु होता है पर उसे अपराधी परिवारों के लिए चरम बनाना कहां की समझदारी है, परंतु फिर भी उपरोक्त मामले में सजा कम करते समय बच्ची के परिजनों की स्वीकृति बिल्कुल नहीं थी।हालांकि, किसी समझौते के बाद भी यदि सजा कम करने का निर्णय लिया जाए, तब भी यह सिद्धांत आधुनिक न्याय की कल्पना के साथ खतरनाक खिलवाड़ है, क्योंकि पुनर्स्थापनात्मक न्याय के नतीजों में भारी भेद होना उसकी नियति है और यह कमजोर पीडित पक्ष को आसानी से दबाव में ला सकता है। इस न्यायिक सिद्धांत की चोट सबसे अधिक पीड़ित महिलाओं या बालिकाओं पर ही पड़ती है, जैसा कि इस मामले में भी देखने को मिला। सही मायने में ऐसी न्यायिक कल्पना सतर्कता न्याय यानी विजिलांटिज्म का ही परिष्कृत भौमिक रूप है।
मृत्युदंड का विरोध न्यायपालिका के एक वर्ग का मनमाना शौक बन गया है, फिर चाहे अपराध कितना भी घिनौना क्यों न हो और न्याय का पुनर्स्थापनात्मक सिद्धांत इस बाबत प्रयोग में लाया जाने वाला सुविधाजनक सेतु बन गया है। ऐसा मानने का कारण यह है कि पिछले कुछ समय में अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों द्वारा जारी और उच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखी गई फांसी की सजाओं तक को रोक दिया है। जहां मंदसौर में सात साल की बच्ची के दुष्कर्मी और हत्यारे की फांसी को रोका गया, वहीं देहरादून में 11 वर्षीय बच्ची के दुष्कर्मी और हत्यारे जयप्रकाश की फांसी की सजा पर रोक लगा दी गई है। दिल्ली के कुतुब विहार इलाके में निर्भया कांड जैसा अनामिका कांड में तीन दोषियों की सजा पर निर्णय अभी सुरक्षित है।
छन्नूलाल वर्मा केस के बाद ऐसे सभी फैसलों में फांसी से पहले दोषियों के मनोरोग मूल्यांकन को भी आवश्यक बना दिया गया है। न्याय की यह नई गढ़ी कल्पना आमजनता के माथे पर कई चिंताजनक प्रश्नों को उकेर देती है। क्या ऐसे अपराधियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता जघन्यतम अपराधों की गंभीरता की अवहेलना नहीं है? क्या किसी जघन्य अपराध की पुनरावृत्ति होने लगे तो वह ‘विरले से भी विरला’ यानी ‘रेयरेस्ट आफ रेयर’ सिद्धांत के अंतर्गत नहीं आएगा? क्या चार, आठ, दस वर्ष की बच्चियों से दुष्कर्म और हत्या ऐसा जघन्य अपराध महापाप नहीं, जिसके पुन: वर्गीकरण और विचारमंथन की कोई आवश्यकता नहीं है? सवाल यह भी है कि न्यायपालिका का पहला काम समाज सुधारात्मक दृष्टिकोण है या निरपेक्ष रूप से न्याय करना धर्म है? आखिर न्यायपालिका का मूल उद्देश्य अपराधियों में कानून का भय बनाना है या प्रगतिवादी मूल्यों पर खरा सोने की तरह चमकना?
क्या न्यायाधीश अपराध की प्रकृति को दरकिनार कर मृत्युदंड के फैसलों को सिर्फ इसलिए रोक रहे, क्योंकि पश्चिमी न्याय व्यवस्थाओं में अधिक मृत्युदंड ठीक नहीं माने जाते? सवाल यह भी है कि एक ही कानून के अंतर्गत निचली अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में लगातार इतना मन व मत भेद क्यों रहता है? मृत्युदंड ही नहीं सर्वोच्च न्यायालय के अन्य फैसलों में भी विरोधाभास स्पष्ट दिखाई दे रहा है। जहां शाहीन बाग धरने और तथाकथित किसान आंदोलन की सुनवाई देश को हुए भारी नुकसान के बावजूद टलती रही, वहीं जहांगीरपुरी में अनाधिकृत निर्माण तुरंत रोक दिया गया। राममंदिर विवाद पांच सौ सालों से सिर घुनता रहा। तीन तलाक पर वर्षों लग गये। इसी तरह किसी सामान्य जन की तुलना में राणा अयूब, आकार पटेल या तीस्ता सीतलवाड़ की सुनवाई आनन-फानन हो जाती है। इस प्रक्रिया में विरोधाभास और न्यायिक आदेशों में भारी अंतर पर कानूनविद फाली नरीमन का मानना था कि ‘अच्छी न्याय व्यवस्था वह है, जिसमें कानून का शासन हो, न कि व्यक्तियों का।’ इसका आशय यही था कि न्यायाधीश अपनी निजी मान्यताओं को छोड़कर दंड संहिता का कड़ाई से पालन करें। उदाहरणार्थ तथाकथितअपराधी नेता जेल में पहुंच कर भी चुनाव लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं। तो यह कैसी जेल है? यह कैसा विधान है? गरीब के घर का छज्जा भी बढ़ जाये तो सारे सिस्टम को खबर हो जाती है, उसको इतना धमकाया जायेगा कि जब तक वो छज्जा गिरा न दें वहीं देश को चूना लगाने वाले भगोड़े विजय माल्या, नीरव मोदी जैसे अनेकों भ्रष्ट लोगों की करोड़ों की अवैध सम्पत्तियों के बनने पर सिस्टम को खबर नहीं होती और न्यायव्यवस्था भी स्वत:संज्ञान नहीं लेती?
अमीरों के लिए अदालत रात में भी खुल जाती है और निर्णय तुरंत वहीं गरीब की तीन पीढ़ियाँ निकल जाती है छोटे से जमीन विवाद पर न्याय पाने को, साहिब! यह असमानता क्यों? क्या न्यायालय को यह स्वत: संज्ञान नहीं लेना चाहिए कि राज्य के किस मुख्यमंत्री ने अपने फंड को कितना जनता के लिए लगाया । किस मुख्यमंत्री ने कितनी जनता को रोजगार दिया या कितना भ्रष्टाचार किया? अगर सुप्रीम कोर्ट सचमुच सुप्रीम है तो क्या आपका फर्ज नहीं बनता कि आप भी देश के नेताओं से पूछें कि उन्होंने किस हद तक बेरोजगारी के आंकड़ों को छुपाने जैसा अपराध किया?
आखिर! कोई तो युवाओं का दर्द समझे। कम से कम रोजगार, भर्ती सम्बंधित केस ही जल्द निपट जायें, देश के युवाओं को मानसिक तनावमुक्त करना क्या सिस्टम की जिम्मेदारी और जवाबदेही नहीं है? आप, कभी व्यक्तित्व आकलन तो कभी रेयरेस्ट आफ रेयर सिद्धांत के तहत और फिर कभी वैकल्पिक सजा या अब मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन के नाम पर भारतीय दंड विधान में दिए गए मृत्युदंड के प्रावधान को जघन्य अपराधों में भी लगभग समाप्त करते चले जा रहे हैं।
ऐसी न्यायिक सक्रियता के बीच एक अनिवार्य सवाल कौंधता है कि ऐसे जघन्य अपराध, जिनमें हर दिन बच्चियाँ, किशोरियां, महिलाएं,बृद्ध शिकार बन रही हैं और बनायी जा रही हैं। उन पर कठोर दंड विधान विधायिकाएं स्वंय तय कर सकेंगी या फिर सब कुछ न्यायाधीशों के स्वत: संज्ञान रूपी स्व: विवेक पर ही छोड़ा जाता रहेगा?और कब तक गरीब, अदालतों की७ लाईन में बैठा अपने फटे अंगोछे से अपने आंसू पोंछता हुआ सिर्फ़ तारीख लेकर लौटता रहेगा… कब तक?