धारा 497 खारिज तो ”वह व्यभिचार या अपराध नहीं होगा” – संध्या चतुर्वेदी
धारा 497 को सरकार ने खारिज किया लगभग डेढ़ सौ साल पुरानी इस धारा खारिज करते हुए, अदालत ने कहा कि यदि पति या पत्नी अपनी स्वेच्छा से बाहर संबंध बनाते हैं ।तो वह व्यभिचार या अपराध नहीं होगा ।किसी भी महिला का यह बहुत निजी और जातीय मामला है। वह अपनी स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बना सकती है ।पति जो कि उसका संरक्षक है ,उसे यह अधिकार नहीं कि वह उस पर मालिकाना हक जताये।शादी एक सामाजिक संस्था है ।जिसमें दो व्यक्ति एक पुरुष और एक स्त्री स्वेच्छा से स्वेच्छा से जीवन व्यतीत करते हैं
लेकिन यह एक संस्था है ,बंधन नहीं । भारतीय समाज में जहां महिलाओं को शादी के बाद या शादी से पहले पर पुरुष के साथ संबंध बनाना घृणित और निंदनीय कार्य कहा जाता है । स्त्री जो कि स्वभाव से बहुत कोमल होती है। शादी के बाद अपना घर परिवार (मायका) सब छोड़कर किसी अनजान,अपरचित पुरुष के घर को अपनाती है और बदले में बस यही चाहती है कि वह पुरुष उसे प्यार दे। अगर उसके प्यार में कमी है और वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं तो वह है अपनी स्वेच्छा से दूसरा संबंध बना सकती है ,लेकिन हमारे समाज में पत्नी को यह अधिकार नहीं कि वह पर पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाए। कारण की समाज पुरुष प्रधान रहा है ।पुरुष का स्वभाव है कि वह अपनी इच्छाएं औरतों पर थोप ता है ।कभी जानने की कोशिश ही नहीं करता, की उस की पत्नी क्या उससे संतुष्ट है या नहीं ।अगर पुरुष या स्त्री दोनों में से मानसिक और शारीरिक संतुष्टि नहीं नहीं है ,तो यह वैवाहिक संबंध अभिशाप बन जाता है। जिस तरह शरीर को भोजन और जल की आवश्यकता है ।उसी तरह मानसिक और शारीरिक सुख भी जरूरी है ।डॉक्टरों के अनुसार एक व्यक्ति 7 दिन तक से अधिक भूखा नहीं रह सकता ।उसका शरीर कमजोर होने लगता है और वह बेहोश हो जाता है ।उसी तरह अगर शारीरिक या मानसिक संतुष्टि नहीं होती तो व्यक्ती ,धीरे-धीरे अवसाद का शिकार हो जाता है ।
एक पुरुष अपने स्वाभिमान के कारण कभी यह जानने की इच्छा नहीं करता की स्त्री उससे संतुष्ट है या नहीं ।वहीं दूसरी ओर स्त्री जो वैवाहिक है पर संतुष्ट नहीं धीरे-धीरे बढ़ती अवसाद के कारण ,अनेक मनोवैज्ञानिक और शारीरिक रोगों से पीड़ित हो जाती है। इसकी शुरुआत अनिद्रा, भूख की कमी, चिड़चिड़ापन से होती है और बढ़ते- बढ़ते माइग्रेन ,सर्वाइकल ,हारमोंस डिसबैलेंस, डिप्रेशन ,हिस्टीरिया जैसी मनोवैज्ञानिक बीमारी का शिकार हो जाती है ।कोई भी व्यक्ति एक या 2 दिन तक बिना भोजन बिना जल के रह सकता है और शादी एक या 2 दिन का नहीं पूरे जीवन भर का साथ होता है। तो ऐसे में जरा सोचिए कि एक पुरुष या स्त्री जो कि ना खुश है और असंतुष्ट हैं ।वह कितने दिन तक अपने आप को नियंत्रित कर सकती है और नियंत्रण भी क्यों करें जब उसकी कोई गलती ही नहीं किसी दूसरे की गलती या उसकी शारीरिक कमी का हर्जाना पूरी जिंदगी अपने शरीर को कष्ट देकर, अपने आप को मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार करके जीवन बिताना और विवाह जैसी सामाजिक संस्था को चालू रखना कितना उचित है ।जो व्यक्ति इस कानून के खिलाफ हैं क्या वह यह कह रहे हैं कि स्त्री को अपनी मर्जी से जीवन जीने का अधिकार नहीं उसे आजीवन मृत्यु की सजा सुनाते हैं ,जिसमें कि वह हर रात मरती है और सुबह होते ही उसे घर के सारे कार्य मे लग जाती हैं और उसका अपराध है कि उसने सामाजिक व्यवस्था को अपनाया और शादी की ।
जरूरी नहीं कि हर बार सरकार गलत हो कानून गलत हो बस जरूरत है ,समाज को सही सोच की सही दिशा कि जिस तरह से हम पश्चात की हर संस्कृति को अपना रहे हैं ।उस तरह अगर हम अपने समाज की कुछ कमियों को दूर कर दे तो उसमें हर्ज ही क्या है विवाह एक संस्था है ,कोई सजा नहीं ।
संध्या चतुर्वेदी
मथुरा यूपी