माँ बाप का स्टेटस टैग ले रहा बच्चों की जान!

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आजकल हर मां-बाप का सपना होता है कि उनका बच्चा आसमां की बुलंदियों को छुए और यही ख्वाहिश अक़्सर हर पेरेंट्स अपने मासूम बच्चों के कंधों पर लाद देते हैं। ऐसे में वे यह भी जानने की जहमत नहीं उठाते कि आख़िर उनका बच्चा क्या चाहता है? परीक्षा का दवाब और मां बाप की उम्मीदें इस हद तक बच्चों पर हावी हो रही है कि वो परीक्षा के इम्तिहान के डर से मौत को गले लगा लेते हैं। एक बच्चें की आखों में न जाने कितने मासूम सपने पल रहे होते हैं, लेकिन अक़्सर घर-परिवार से जुड़े लोग बच्चों के सपनों को ताक पर रखकर सामाजिक पद-प्रतिष्ठा की लालच में उलझ जाते हैं। जिसका नतीजा अमूमन सिफ़र ही साबित होता है।
इसे बिडम्बना कह लीजिए या आज के समाज की हकीकत कि हमारा समाज हर बच्चें को शीर्ष पर देखना चाहता है, लेकिन वास्तविकता तो यही है कि शीर्ष पर सिर्फ़ एक व्यक्ति ही काबिज़ हो सकता है। फ़िर ऐसी आशा, अपेक्षा और आस आख़िर किस काम की? जो कोटा जैसे शहर में एक साल के भीतर ही 24 बच्चों की जान ले ले। इन 24 बच्चों की आर्थिक-सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दशा की विवेचना करें, तो ये बात निकलकर आती है कि इनमें से आत्महत्या करने वाले 13 बच्चें नाबालिग हैं।
वहीं 15 बच्चे गरीब या मध्यमवर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखते थे। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जान गंवाने वाले बच्चों में से कोई नाई का बेटा है, तो किसी के पिता गाड़ी धोने का काम करते हैं। ऐसे में सहज आंकलन किया जा सकता है कि कैसे पढ़ाई, प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन के दबाव में जान देने वाले छात्रों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
हर बच्चा अपने आप में यूनिक होता है। मान्यताओं के अनुसार हर बच्चें के भीतर कोई न कोई ऐसा गुण अवश्य समाहित जाता है। जो उसे औरों से अलग बनाता है, लेकिन भेड़चाल की ऐसी परिपाटी हमारे समाज में अनवरत जारी है। जिसके नकारात्मक प्रभाव हम सभी के सामने हैं। इसके बावजूद हम सबब सीखने को तैयार नहीं! एक बच्चा भी अस्वाभाविक मौत मरता है, तो यह एक राष्ट्र के लिए अपूरणीय क्षति है। लेकिन न रहनुमाई व्यवस्था को इस बात की फ़िक्र है और न ही पालकों को। परिजन की ख्वाहिश सिर्फ़ इतनी होती है कि फ़लाने का लड़की या लड़का अगर डॉक्टर-इंजीनियर बन सकता है, तो हमारा सिक्का खोटा क्यों रहें? भले ही फिर बच्चें की रुचि खेल या किसी अन्य गतिविधियों में क्यों न हो? उसकी परवाह तक करना परिजन छोड़ देते हैं।
 परीक्षा जीवन का एक हिस्सा होती है पर परीक्षा को ही जीवन मान लेना ये कहाँ की समझदारी है? दुनिया में ऐसा कोई रिपोर्ट कार्ड नहीं बना। जो किसी के भविष्य को तय कर सके। पर वर्तमान दौर में उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अपने भविष्य निर्माण की तैयारी कर रहे छात्रों के बढ़ते मौत के आंकड़े यह बताने के लिए काफ़ी है कि कैसे भविष्य निर्माण के दवाब में बच्चे मौत को गले लगा रहे हैं। वैसे तो हमारे देश में नई शिक्षा नीति को लेकर बड़ी बड़ी बातें की गई थी।
कहा तो ये तक गया था कि नई शिक्षा नीति रोजगार देने वाली होगी। पाठ्यक्रम बदला, नीतियां बदली पर नौनिहालों के जीवन का संकट, भविष्य संवारने की लालसा अभी तक पूरी न हो सकी। देश की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से प्रतियोगी हो चली है। बच्चे स्कूल में दाख़िल होते भी नहीं और उनके लिए ट्यूशन मास्टर रख दिए जाते हैं। भविष्य गढ़ने की चिंता में बच्चे का बचपन तक दांव पर लगाने से माता पिता पीछे नहीं हटते है।
अभी चंद दिनों पहले ही चेन्नई से एक दर्दनाक खबर सामने आई थी। यहां एक पिता अपने जवान बेटे की मौत के दर्द को सहन नहीं कर पाया और अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। सेल्वासेकर नाम का ये व्यक्ति पेशे से एक फोटोग्राफर था पर कैमरे के लेंस से अपने बेटे के दर्द पर फ़ोकस नहीं कर पाया। उनका बेटा प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा था पर परीक्षा में असफल हो गया और मौत को गले लगा लिया। इस घटना ने पिता को अंदर तक आहत कर दिया। पिता ने भी बेटे की मौत के गम में आत्महत्या कर ली पर आत्महत्या करने से पहले छात्र के पिता ने अपने मित्र से कहा कि, “वो अपने बेटे में एक डॉक्टर को देख रहा था, लेकिन काश वो अपने बेटे में सिर्फ अपने बेटे को ही देख पाते। उसका मन पढ़ पाते तो आज उनका बेटा ज़िंदा होता।”
ये एक मात्र उदाहरण नहीं, ऐसी दास्ताँ समाज में अनेक मिल जाएगी, लेकिन वर्तमान दौर में कौन किस मनोदशा से गुज़र रहा। यह जानने समझने का समय किसी के पास नहीं! सभी अपने जीवन में इस कदर व्यस्त हो गए है कि सामने वाला व्यक्ति किस दर्द, किस परेशानी में है, इससे किसी का वास्ता नहीं रहा।
पिछले साल नोएडा में ही एक 20 साल के छात्र ने भी खुदकुशी कर ली थी। इस हादसे ने डॉक्टर माँ और इंजीनियर पिता की ज़िंदगी में कभी न भरने वाला दर्द दे दिया। उनका बेटा आईआईटी एंट्रेंस की तैयारी कर रहा था।
बेटा अपना बैंड बनाना चाहता था। उसे संगीत का बहुत शौक था, पर पिता के दवाब ने उसे आईआईटी की तैयारी में लगा दिया। बेटे न म्यूजिक पढ़ने की इच्छा जताई तो पिता ने गुस्से में उसका गिटार तोड़ दिया। पिता को लगता है कि उनका बेटा कमज़ोर है, पर मां जानती है कि उनका बेटा हारा नहीं बल्कि उनके स्टेटस टैग ने उसे हारने पर मजबूर कर दिया था।
आज भी हमारे आसपास ऐसी कितनी कहानियां और कितना दर्द भरा हुआ है। कितने मां-बाप अपने जवान बेटे की मौत का मातम मना रहे हैं। राजस्थान के कोटा शहर की ही बात करे तो ये शहर सुसाइड हब बना चुका है। ऐसे में अब जरूरत है अपने बच्चों को बचाने की, न कि स्टेटस सिंबल और अपनी महत्वाकांक्षाओं के नाम पर उन्हें मौत के मुँह में ढ़केलने की।
_सोनम लववंशी

Sach ki Dastak

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