[सफाईकर्मियों का अपमान बर्दाश्त नहीं। ]
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_____ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना न्यूज एडीटर सच की दस्तक नेशनल मैग्जीन, वाराणसी उ. प्र
आज हमारे देश में स्वच्छता का ध्वज दसों दिशाओं को रोशन कर रहा है। आज हर बड़े नेता व मंत्री हाथ में झाड़ू, फावड़ा लिये सफाई करते सोसल मीडिया पर छाये व अखबारों की शान बने हुये हैं। पर जो सचमुच हमारे देश के हजारों वर्षों से मैला उठाते आ रहे सफाईकर्मी है उनकी हालत पर आप माननियों को तरस क्यों नहीं आता? आप कहते हैं कि महिलाओं के हाथ से मैला हटाओ पर जब उनके पुनर्वास की बात आती है तो क्यों उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने में एड़ियां घिस जाती हैं और मजबूरन उन्हें मैला ढ़ोने व सीवर में जाना पड़ता है और दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्हें असमय काल के गाल में समाना पड़ता है। उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण यह कि हमारे सेवाकर्मी सफाईकर्मियों के प्रति सरकार, समाज व न्यायालय प्रशासन का बेरूखी भरा नजरिया उनकी जीते जी जान ले लेता है।
एक आंकड़े के अनुसार बीते एक सप्ताह में सीवर साफाई के दौरान मरने वाले सफाई कर्मियों की संख्या छह तक पहुंच गई है। बीते सप्ताह दिल्ली में ही एक निजी आवासीय सोसायटी में बचाव उपकरणों के बिना गहरे सीवर की सफाई करने के दौरान चार सफाई कर्मियों की मौत हो गई थी इस तरह की खबरें मानवता के प्रति हमारी संवेदनहीनता को हो। उजागर नहीं करतीं, बल्कि समयसमय पर संवैधानिक कानूनों के हनन का उदाहरण भी पेश करती हैं।अफसोस है कि स्वच्छता अभियान के तमाम दावों के बीच समाज को शर्मसार करने वाली ऐसी घटनाएं दिल्ली जैसे शहर में भी रहरह कर घट रही हैं। छोटे बड़े सभी शहरों केे आवासीय-कार्यालय परिसरों के सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए ठेकेदारों द्वारा 500-600 रुपये के लालच में अकुशल सफाई कर्मियों को बिना बेल्ट, मास्क, टॉर्च और अन्य बचाव उपकरणों के ही 10-15 मीटर गहरे टैंकों में उतार कर सफाई प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है।
गंदगी की पराकाष्ठा की बात आती है तो कानपुर के गंदे नाले को कौन भूल सकता है जिसने कानपुर की गंगा नदी को आचमन लायक नहीं छोड़ा। आज पशु, पक्षी, वन्य जड़ी-बूटियों की दुर्लभ प्रजातियों का लुप्त हो जाना तथा हम मानवों और मवेशियों में भयंकर बीमारियों का पनपना इसी गंदगी और प्रदूषण का ही परिणाम है। जब बात आती है तो कहा जाता है हमारे देश में कानूनों का पालन लचर स्थिति में है। क्योंकि समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से सख्त निर्देश आते रहे हैं। सितंबर 1993 को मैला ढोने और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर रोक लगाने वाला कानून बनाया गया था।फिर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून आया जिसमें सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया। इन श्रमिकों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजना के पहले के वर्षों में 100 करोड़ रुपये के आसपास आवंटित किया गया था, जबकि 2014-15 और 2015-16 में इस योजना पर कोई भी व्यय नहीं किसी के संज्ञान में नही हैै।
मैला ढोने जैसे रोजगार पर निषेध और पुनर्वास अधिनियम 2013के खंड7 के तहत सेप्टिक टैंकों की सफाई जैसे जोखिम भरा कार्य करने पर प्रतिबंध है। मौजूदा कानून के अंतर्गत इस तरह के सफाई कार्य और शुष्क शौचालयों का जारी रहना संविधान की धारा 14, 17, 21 और 23 का उल्लंघन है। इन कानूनों के बावजूद एक बड़ी संख्या में लोग ऐसे कामों में लगे हुए हैं। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को 2013 का कानून पूरी तरह लागूू करने, सीवर-टैंकों की सफाई के दौरान मरने वालों के आश्रितों को दस लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया था। अफसोस कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश भी जमीनी हकीकत पर उतरने में समर्थ नही हुये।
सोचना महत्वपूर्ण है कि उन सफाईकर्मियों से पूछो जो अपनी जान हथेली पर रखकर सीवर में उतरते हैं और सीवर की सफाई के दौरान उन्हें सीवर की जहरीली गैसों अपनेे आगोश में ले लेतीं हैं जिससे उन सफाईकर्मियों को पूरे शरीर में जलन, एलर्जी, खांसी, उल्टी, सिरदर्द, बेहोशी व भयंकर संक्रमण और हदय रोग की समस्या का सामना करना पड़ता है।
असंवेदनहीनता के शिकार हो रहे सफाईकर्मी
यह ठीक नहीं कि तमाम कानूनी प्रावधानों व डिजिटिलाईजेशन के वजूद यह अमानवीय कृत जारी है। राज्य सरकारों की उदासीनता भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि आए दिन सफाई कर्मियों की मौत से जुड़ी खबरें सामने आती हैं, लेकिन ऐसे कार्यों में संलिप्त ठेकेदारों की गिरफ्तारी की खबर मुश्किल से ही आती । कानूनी प्रावधानों के बावजूद सीवर टैंकों की सफाई के दौरान हुई मृत्यु के बाद आश्रितों को मुआवजे तक से वंचित रह जाते हैं। पुनर्वास की व्यवस्था में अनियमितता एक राजनीति पेच है।आज देश की स्वच्छता हमारे सबसे बड़े अभियानों है इस सूरत में यह समझना होगा कि देश के शहरी और उपशहरी क्षेत्रों के करोड़ों शौचालय अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम से नहीं जुड़े हैं और उनकी सफाई के लिए कोई मशीनी प्रक्रिया भी प्रचलन में नहींं है। सीवर सफाई के लिए कर्मचारियों को गैस प्रूफ फुल बॉडी सूट, एयर पाइप, हेलमेट, दस्ताने जैसे प्राथमिक उपकरण भी उपलब्ध नहीं हैं।
आज जब हम अंतरिक्ष में जीवन ढूंढ रहे हैं और वहीं दूसरी तरफ़ पृथ्वी के जीवन का उपहास उड़ा रहे हैं कि शर्मनाक है कि आज भी मैला ढोने की अमानवीय प्रथा आज भी देश के बड़े राज्यों जैसे- जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में बदस्तूर जारी है।
सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि देश में प्रतिदिन लगभग 1,60,000 महिलाएं मजबूरन मैला ढोने का काम कर रही हैं। जिसकी पुष्टि हाल में आई इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट ने की है जिसमें एक अंतर-मंत्रालयी कार्य बल द्वारा देश में मौजूद मैला ढोने वालों की संख्या जारी की गई है।उनके मुताबिक देश के 12 राज्यों में 53,236 लोग मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं। यह आंकड़े साल 2017 में दर्ज पिछले आधिकारिक रिकॉर्ड का चार गुना है। उस समय यह संख्या 13,000 बताई गई थी। हालांकि यह पूरे देश में काम कर रहे मैला ढ़ोने वालों के सत्यापित आंकड़े अब भी नहीं है।सफाई कर्मचारी आंदोलन ने पिछले साल अगस्त में जारी अपने एक सर्वे में कहा था कि बीते पांच वर्षों में सफाई करते हुए 1470 सफाईकर्मियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है जिसमें सिर्फ़ दिल्ली में पांच वर्षों के भीतर 74 सफाईकर्मियों की मौत सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान हुई है।
सफाईकर्मियों की हालत गम्भीर
कब तक जान गवांयेगें हमारे सफाईकर्मी
जब भी मैं समुंदर के गोताखोरों को देखती हूँ तो यही सोचतीं हूं कि उन्हें स्वंय की सुरक्षा के लिए अत्याधुनिक सूट, दस्ताने सहित हर वह उपकरण मुहैया कराये जाते हैं जो उनके लिए जरूरी होते है लेकिन हमारे सफाईकर्मी जो सीवर यानि मौत के मुँह में जाते है, सरकार के पास उनके लिए कोई अत्याधुनिक सुविधायें नहीं और अगर किसी को लगता है सीवर में जाकर सफाई करना आसान कार्य है तो वह एक बार सीवर में जरूर उतरे।
दुखद बात है कि सरकार के पास इस परेशानी से निपटने के लिए कोई योजना नहीं है।सरकार स्मार्ट सिटी बनने का भाषण तो देती है लेकिन स्मार्ट सैनिटेशन की बात नहीं करती जबकि हमारे देश में सैनिटेशन को लेकर जागरूकता की बहुत कमी है। बहुत से लोगों द्वारा पॉलीथिन, बाल, गंदगी, कागज, सेप्टिक टैंक में बहा दिये जाते हैं और जब वह ब्लॉक हो जाता है तो किसी न किसी को मजबूरन अंदर जाना ही पड़ता है जिसमें उनकी मौत हो जाया करती है। यह एक सच्चाई है कि आज स्वच्छता के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन सफाई कर्मियों की दर्दनाक मौतें स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों को मुँह चिढ़ा रहीं है।आज जब देश की स्वच्छता हमारे सबसे बड़े अभियानों मेंं एक है तब यह हालत है।
चिंताजनक बात तो यह है कि हमारे पास बारिश के पानी और आँधी-तूफान के बाद इकट्ठा जल निकासी की समुचित व्यवस्था ही नहीं है। समझ नही आता कि आप माननीय विदेश में जाकर वहां की सफाई टैक्नोलॉजी का अध्यन क्यों नही करते? आखिर! आपके विदेश जाने का राष्ट्रहित में योगदान अधूरा सिद्ध होगा?
संविधान निर्माता डॉ. भीम राव ने अम्बेडकर ने कहा था कि भारत में लोगों की चेतना केवल जाति पर आधारित है। समय बदला पर यह बात बिल्कुल सच जान पड़ती है जब हम यह सोचते हैं कि आखिर! विधि एवं न्याय की शिक्षा प्राप्त विवेकवान न्यायाधीश जाटव उपवर्ण का अब तक सर्वोच्च मुख्य न्यायाधीश क्यों नहीं? तथा विधि की शिक्षा प्राप्त विद्वान अधिवक्ता वाल्मीकि उपजाति का भारत का सर्वोच्च मुख्य सहायक न्यायाधीश पेशकार क्यों नहीं? आखिर! क्योंं सिर्फ़ मैला ढोने व सीवर सफाई का काम इतने लंबे समय से एक ही जाति और तबके के लोग क्यों करते आ रहे हैं?
सचमुच हमारी मानसिकता, रूढ़ियों की आज भी गुलाम है। आज जो सफाईकर्मी मशीन से भी सफाई का काम करते हैं तो भी उन्हें सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
आज भी लोग रूढ़िवादी सोच के वशीभूत होकर सामने खड़े नहा- धुले सफाईकर्मियों को भी पैसे उनके हाथ में देने की बजाय ज़मीन पर ही रखकर देते दिखाई देते हैं। क्योंकि केवल हमारे कपड़े मॉर्डन हुए हैं पर सोच वहीं जड़ की जड़ है?अब वक्त आ गया है कि सरकार मैला ढोने और हाथों से सीवर की सफाई पर पूरी तरह रोक लगाकर स्वच्छ भारत अभियान का डिजिटिलाईजेशन, मशीनीकरण कर दे। क्योंकि इतनी सारी सामाजिक व राजनीतिक विषमताओं के बीच घिरा सफाईकर्मी समाज पर क्या बीतती होगी? जो सीवर सफाईकर्मियों का जीवन नर्क बना हुआ है जिसपर माननियों की चुप्पी ने नश्तर और डंक का काम किया है। यही सब देखकर हमारे मन – मस्तिष्क में यही प्रश्न मुँह चिढ़ा रहा है कि आखिर! सफाईकर्मियों के अच्छे दिन कब आयेगें?