खलिहानों से बोल रहा हूँ।✍️राजेश पुनिया “विश्वबंधु”

1

धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।
खेती कार किसानी छुटती दिख रही किसानों से।
आओ तुमको सर्वप्रथम अपना इतिहास सुनाता हूँ।
था कृषि का क्या महत्व मेरी भुमिका बतलाता हूँ।।
उत्तम खेती कहलाती थी मध्यम था व्यापार सुनो।
नक़द चाकरी समझी जाती सब बातों का सार सुनो।।
धीरे-धीरे लगी गुजरने कृषि कार इम्तिहानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 1

अर्थव्यवस्था का होती थी कृषि मूल आधार कभी।
अन्नदाता की पूजा किया करता था संसार कभी।।
धीरे-धीरे कृषि के हालात बिगड़ते चले गये।
खेती कार किसानी से किसान बिछड़ते चले गये।
किसान किनारा करन लगे तंग आकर नुकसानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 2

कुछ मारा प्रकृति ने कुछ धनवानों ने लुटा हूँ।
सरकारों के प्रहारों से अन्दर तक मैं टुटा हूँ।।
स्वर्ण युग में जीने वाला काले दिन अब देख रहा।
अस्तित्व बचाने खातिर सबकुछ गिरवी टेक रहा।।
मुझको बेदखल कर देते भूमी और मकानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 3

जननी जैसी जमीन मेेरी की जब निलामी होती है।
कद कृषि का घट जाता मेरी बदनामी होती है।।
जब कोई अन्नदाता आत्महत्या करना चाहता है।
कृषि के इतिहास मे काला अध्याय जुड जाता है।।
कुछ पल के लिये संसद गुँज उठती ब्यानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 4

मैने अपने खलिहानों को आंसु बहाते देखा है।
दलालों के प्रहारों से खेत करहाते देखा है।।
खुन पसीने के मेहनत भी मिट्टी होती देखी है।
मंदी से घायल होकरके फसलें रोती देखी है।।
खेतों को लड़ते देखा आंधी और तुफानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 5

जहां-जहां जाता हूँ वहां अपमानित होना पड़ता है।
साहूकारों की महफिलों में मुझको रोना पड़ता है।।
उनके आगे हाथ फैलाकर कद छोटा हो जाता है।
कर्जवान किसान कहलाकर दुख मोटा हो जाता है।।
मरने पर विवश होता हूँ तंग आकर अपमानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 6

मैं भी तो लेना चाहता हूँ अब सन्यास किसानी से।
क्या बितेगी सब ले लेंगे जब सन्यास किसानी से।।
दुनिया भुखी मर जायेगी अन्न संकट छा जायेगा।
सब जीवों के अस्तित्व पर फिर खतरा मंडरायेगा।।
अब तक जीवित हूँ मैं केवल अपने ही अरमानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 7

गर अस्तित्व चाहते सबका अन्न हमको उगाना होगा।
कृषि को जीवित करके फिर अन्नदाता बचाना होगा।।
खेतों की खोई हुई हरियाली फिर से लानी है।
किसानों के जीवन मे खुशहाली फिर से लानी है।।
“विश्वबंधु” पदवी अन्नदाता की बड़ी सभी सम्मानों से।
धरतीपुत्र अन्नदाता मैं बोल रहा खलिहानों से।। 8

स्वरचित व मौलिक
✍️राजेश पुनिया “विश्वबंधु”

Sach ki Dastak

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
राजेश पुनिया "विश्वबंधु"
3 years ago

बहुत बहुत हार्दिक आभार आदरणीय।

1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x