सिविल कोर्ट वाराणसी द्वारा नियुक्त सर्वे टीम द्वारा प्रस्तुत किए गए रिपोर्ट में जो साक्ष्य मिले है उसे देखा जाए तो साफ कहा जा सकता है कि बाबा काशी विश्वनाथ का मंदिर है आक्रांताओं ने उसे तुड़वा कर केवल मस्जिद का ढांचा उस पर रख दिया जिसे आज ज्ञानवापी मस्जिद कहते हैं ।न तो मस्जिद के अपने खंभे हैं और ना, ही उसकी जमीन।
मुस्लिम स्कॉलर कहते हैं की मस्जिद उस जगह पर बनाई जानी चाहिए जो समतल हो और उसके द्वारा खरीदी गई हो। ज्ञानवापी के संबंध में सर्वे टीम के अनुसार ऐसा नहीं पाया गया है ऐसे में ऐसा इशारा हो रहा है कि ज्ञानमापी का यह ढांचा है, शेष मंदिर है । ऐसे मुकदमा न्यायालय में है सच की दस्तक टीम इस बात का दावा नहीं करती कि वास्तव में यह फैसला किसके पक्ष में जाएगा और किसके दावे में दम है। निर्णय तो अदालत को करना है।
वाराणसी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है। वाराणसी का इतिहास काफी पुराना है जो सनातन धर्म को भी बिल्कुल स्पष्ट करता है।काशी को तीनों लोक से अलग स्थान दिया गया है ।हमारे पुराणों में भी काशी का जिक्र हुआ है ।पुराणों के अनुसार काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर बसी हुई है ।कहा जाता है कि यदि कहीं पर मोक्ष स्थली है तो वह है काशी । यदि काशी में किसी मनुष्य के प्राण जाते हैं तो उसे सीधे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। आज वही काशी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था
सच की दस्तक जो राष्ट्रीय पत्रिका है उसका भी प्रकाशन वाराणसी से पिछले 5 सालों से हो रहा है तो निश्चित तौर पर हमारा भी दायित्व होता है जिन्हें निर्वाह करें और बाबा विश्वनाथ व ज्ञानवापी मज्जिद को तर्कसंगत तरीके से पेश करते हुए सत्यता की जांच करें ।जिस प्रकार से माता श्रृंगार गौरी की पूजा हिंदू धर्म में महिलाओं द्वारा की जाती है ।इस पूजन स्थली को लेकर एक याचिका वाराणसी कोर्ट में पिछले दिनों दाखिल की गई थी और इस याचिका के माध्यम से यह मांग की गई थी कि प्रत्येक दिन माता श्रृंगार गौरी की पूजा करने की अनुमति दी जाए ।जबकि पहले से किसी विशेष अवसर पर ही हिंदू महिलाओं को पूजा स्थल जाकर पूजा अर्चना करने की इजाजत है। इसी के मद्देनजर वाराणसी के कोर्ट ने सर्वे कराने का फैसला लिया और उसका सर्वे 14 मई से 16 मई तक चला और सर्वे रिपोर्ट 19 मई को पेश की गई।
निश्चित तौर पर यहां काफी विवादों के बाद कोर्ट की निगरानी में न्यायालय द्वारा नयुक्त तीन कमिश्नरों के साथ ज्ञानवपी मस्जिद के अंदर सर्वे टीम दाखिल हुई और बाकायदा सर्वे करके वीडियोग्राफी करके फोटोग्राफी करके तथ्य को एकत्रित किया और उसकी रिपोर्ट कोर्ट में दाखिल कर दी।लेकिन सर्वे टीम के एक कमिश्नर द्वारा रिपोर्ट लीक करने के मामले को कोर्ट ने गंभीरतापूर्वक लेते हुए उन्हें फटकार लगाकर उस टीम से अलग कर दिया ।
सर्वे टीम द्वारा जो रिपोर्ट सौंपी गई उस रिपोर्ट के तहत नंदी बाबा के ठीक सामने सनातन प्रवृत्ति के नियमानुसार शिवलिंग मिला लेकिन उसके ऊपर सीमेंट थोप दिया गया था जिसे मुस्लिम पक्ष ने शिवलिंग मानने से ही इनकार नहीं कर रहा बल्कि यह कह रहा है कि वह तो वजू करने के लिए फव्वारा था जबकि शिवलिंग के अंदर सींक जाने की जगह भी नहीं थी उसके अलावा फव्वारा का कोई निशान नहीं मिला।
जांच टीम ने अभी जो रिपोर्ट लगाई है उसके अनुसार केवल मस्जिद दिखाने के लिए है लेकिन उसके अंदर देवी देवताओं के चित्र फोटो भी मौजूद हैं उनके दीवारों पर स्वास्तिक के निशान है,साथ ही दीवारों पर कलाकृतियां साफ दिख रही हैं जो मस्जिद में भी हो सकती है। ये प्रमाण साफ इस बात की तरफ इशारा करते हैं की विदेशी आक्रांताओ ने केवल ऊपर ढांचा बनाया और उसे मस्जिद घोषित कर दिया था। बाहुबल के आगे हिंदू धर्म के अनुयाई उस समय शांत रहे और जितने जुल्म आक्रांताओ द्वारा उनके खिलाफ किया जा रहा था सभी कठोर हृदय से उस समय सहते रहे।
निश्चित तौर पर इतिहासकारों ने यह साफ साफ कहा कि 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया था। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।
इस संबंध में मुस्लिम पक्ष के लोगों का कहना है कि जिसे शिवलिंग समझा जा रहा है वह वास्तव में फव्वारा है जो वजू करने के लिए प्रयोग में लाई जाती है। उसके अलावा मुस्लिम स्कॉलर्स का यह कहना है कि 1991 जो नियम कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने बनाए थे उसका पालन होना चाहिए उसके मुताबिक 1947 के पहले जिस प्रकार से पूजा स्थल थे उसे बरकरार रखा जाए उसके साथ छेड़छाड़ न की जाए । देश संविधान से चलता है आस्था से नही , सभी को इसका पालन करना चाहिए।
“”सच की दस्तक टीम ने कानून विशेषज्ञ से समझा की 1991 वरशिप एक्ट का एक सार निकल कर आता है जिसके मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है।”