“महिलाओं  की नकारात्मक छवि परोसते हमारे डेली सोप (टीवी सीरियल) ”-

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लेखिका – नीलू सिन्हा

रोहिणी, दिल्ली

          नारी कुदरत की बेहद खूबसूरत रचना है ।  हर प्रकार से प्रतिभाशाली एवं सक्षम होते हुए भी समाज में उपेक्षित रही है ।  समय समय पर इनके अधिकारों और उत्थान के लिए बुद्धिजीवियों ने निरंतर प्रयास किये हैं । 
        इन प्रयासों का परिणाम ये है की आज वह अपने कर्तव्यों के साथ अपने अधिकारों से भी पूर्णत: वाक्किफ है  और  हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी है ।
         इन क्षेत्रों में से मीडिया भी एक प्रमुख क्षेत्र है । अब वहाँ चाहे पत्रकारिता हो, लेखन हो , निर्देशन हो, अभिनय हो या  फिर सम्पादन।  मीडिया सदैव ही हमारे समाज का दर्पण रहा है । समाज में बदलाव के लिए भी सदैव से ही एक प्रमुख भूमिका निभाता रहा है । 
           प्रिंट मीडिया में महिलाओं का लेखन , संपादन और पत्रकारिता में खुलकर सरहानीय योगदान रहा है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में  जहाँ महिलायें शोषण और उत्पीड़न से मुक्त एक आधुनिक नारी के रूप में दिखी है वहीं दूसरी और धारावाहिकों, फिल्मों और विज्ञापनों में उनकी नकारात्मक और नग्नता ओढे छवि समाज में चिंता का विषय है ।
        शुरुआत में जब मीडिया का उदय हुआ तब महिलाओं को रिश्तों और धर्म के मूल्यों पर विशवास करने वाली एक आदर्श नारी की छवि के रूप में प्रस्तुत करता था । परन्तु लगभग १९९० के पश्चात से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का ऐसा व्यवसायकरण हुआ की महिलाओं की छवि पूर्णत: बदल कर रख दी ।  डेली सोप धारावाहिकों में महिलाओं को हर मर्यादा तोड़ते हुए केवल एक भोग्या के रूप में प्रस्तुत किया है ।
             हर चरित्र अपनी पारम्परिक आदर्श छवि को तोड़ता हुआ आधुनक महिला के नाम पर नग्नता का प्रदर्शन कर रहा है ।क्या हमने कभी ये सवाल उठाने की कोशिश की है की जिस पश्चिमी संस्कृति में भारतीय नारी और उसका पहनावा हमेशा से ही आकर्षण का बिंदु  रहा  है आज उस संस्कृति का अनुकरण करते करते मीडिया ने महिलाओं की छवि को  किस हद तक नुक्सान पहुंचाया है। 
           सिगरेट के कश लगाती और शराब के घूँट भरती  हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अर्धनग्न अभिनेत्रियां समाज में किस वर्ग और परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रही हैं ।
यह सब देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है की हमारा मीडिया महिलाओं के वास्तविक मुद्दों और समस्याओं को भूलकर केवल विज्ञापनों और देह का बाजार बनकर रह गया है ।
         विज्ञापन चाहे वह बच्चो के खाने की वस्तु का हो या साबुन, शैम्पू, नैपकिन्स या ऐसे विज्ञापन जहाँ दूर दूर तक महिलाओं का का कोई सम्बन्ध ही न हो जैसे शेविंग क्रीम्स, जेंट्स अंडरवियर आदि में महिलाओं को सुन्दर और कामुक रूप में प्रस्तुत कर केवल भोग्या बनाकर रख दिया है ।
       इससे भी बड़ी विडम्बना यह है की अभिनेत्रियां इन सबका स्वयं हिस्सा बनती हैं और यह कहकर पल्ला झाड़ लेती हैं की समय और सीन की मांग के अनुसार उनका ऐसा प्रदर्शन था ।  महिलाओं का किरदार तब तक सरहानीय हैं जब तक वे समाज में नकारात्मक सोच और अन्य महिलाओं के लिए असुरक्षा को जन्म न दे ।
जय शंकर प्रसाद जी ने अपने महाकाव्य कामायनी में लिखा हैं :-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास-रजत-नग पगतल में
पियूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ।”
        जय शंकर प्रसाद जी की  ये पंक्तियाँ नारी के समाज में सम्मानित स्थान को दर्शाती हैं । परन्तु आज मीडिया ने कमोपेश महिलाओं का समाज में अपने धारावाहिकों और फिल्मों द्वारा जो चित्र प्रस्तुत किया हैं वह बेहद असंवेदनशील हैं । 
         आप स्वयं से सवाल करें की क्या हम महिलायें वास्तव में इन चरित्रों का अंश भर भी हैं ।  यदि ऐसा होता तो क्या हम अपने परिवारों, रिश्तों और समाज को संजोयें हुए रखती ।  क्यों ऐसे बेहूदा चरित्र पारम्परिक चरित्रों की धज्जिया उड़ाते हुए दिखते
हैं ।
        “नो एंट्री ” और “क्या कूल हैं हम ” जैसी अनेक घटिया कॉमेडी वाली फिल्मे दर्शको को किस दिशा में ले जा रही हैं ।  क्या वाकई हमारे युवा वर्ग की पसंद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया परोस रहा हैं या अपनी घटिया प्रस्तुतियों का उनको आदि बनाकर उनका भविष्य और उनका मानसिक स्तर गर्त की और ले जा रहा है ।
          अंततः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और महिलाओं को समझने की आवश्यकता है की समाज में उनका क्या दायित्व है । फिल्मों और धारावहिकों में नारी चरित्र बनाते समय निर्देशकों को यह नहीं भूलना चाहिए की देह प्रदर्शन और घटिया मानसिकता वाले चरित्र महिलाओं की वास्तविक समस्याओं को दबाकर समाज में महिलाओं के प्रति वितृष्णा को जन्म दे रहे है ।
        व्यवसायीकरण से हटकर अपने गंभीर दायित्व पर विचार करना चाहिए ।  महिलाये जो अभिनेत्रियां है उन्हें भी सोचना चाहिए की मात्र पैसो के लालच में वे घटिया किरदारों में इस कदर तक गिर जाती है की समाज में सम्मान नहीं केवल उपेक्षा का कारन बनती है ।  और शायद यही वजह है की महिलाएं कितनी भी ऊंचाइयों तक पहुँच जाएँ फिर भी एक महिला होने के नाते कुछ हद तक उनमे असुरक्षा की भावना घिरे रहती है ।
          मीडिया को महिलाओं की भोगवादी छवि को सुधारकर ऐसी कृतियाँ परोसनी होंगी जो महिलाओं को पूर्वत: आदर व् सम्मान दें । और मीडिया में महिलाओं की भूमिका बदलने के लिए सर्व प्रथम कदम महिलाओं को स्वयं ही उठाना होगा ।

Sach ki Dastak

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