श्रद्धांजलि : साहित्य जगत का सूर्य अस्त। नहीं रहे प्रखर आलोचक नामवर सिंह –

हिंदी के प्रख्यात नायाब आलोचक, साहित्य में दूसरी परंपरा के अन्वेषी डॉ. नामवर सिंह का दिल्ली के एम्स अस्पताल में निधन हो गया है. वो 93 वर्ष के थे। उनका अंतिम संस्कार बुधवार को अपराह्न सम्भवतः लोदी दाहगृह में होगा।
सिंह ने हिंदी साहित्य में आलोचना को एक नया आयाम दिया। ‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘कहानी नयी कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘दूसरी परम्परा की खोज’ और ‘वाद विवाद संवाद’ उनकी प्रमुख रचनाएं हैं।
उन्होंने हिंदी की दो पत्रिकाओं ‘जनयुग’ और ‘आलोचना’ का संपादन भी किया।
उन्होंने हिन्दी साहित्य में एमए व पीएचडी करने के पश्चात् काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया, लेकिन 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रूप में चुनाव लड़ने तथा असफल होने के बाद उन्हें बीएचयू छोड़ना पड़ा।
बीएचयू के बाद डॉ. नामवर सिंह ने क्रमश: सागर विश्वविद्यालय और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया। लेकिन बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्होंने काफी समय तक अध्यापन कार्य किया। अवकाश प्राप्त करने के बाद भी वे उसी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में इमेरिट्स प्रोफेसर रहे। वे हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, एवं संस्कृत भाषा भी जानते थे।
नामवर सिंह की चुनिंदा कविताएँ –
दिन बीता,
पर नहीं बीतती,
नहीं बीतती साँझ
नहीं बीतती,
नहीं बीतती,
नहीं बीतती साँझ
ढलता-ढलता दिन
दृग की कोरों से ढुलक न पाया
मुक्त कुन्तले !
व्योम मौन मुझ पर तुम-सा ही छाया
मन में निशि है
किन्तु नयन से
नहीं बीतती साँझ
💐🙏💐
पथ में साँझ
पहाड़ियाँ ऊपर
पीछे अँके झरने का पुकारना ।
सीकरों की मेहराब की छाँव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना ।
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना ।
🌸🙏🌸
याद है : चूड़ी की टूक से चाँद पै
तैरती आँख में आँख का ढारना ?
आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या ।
पार हाट, शायद मेल; रंग-रंग गुब्बारे ।
उठते लघु-लघु हाथ,सीटियाँ; शिशु सजे-धजे
मचल रहे… सोचूँ कि अचानक दूर छ: बजे ।
पथ, इमली में भरा व्योम,आ बैठे तारे
‘सेवा उपवन’, पुष्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया ।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तू…?
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।
🌸🙏🌸
मेरी कविता कविता में, वह दृष्टि दोष है ।
यहाँ एक ही सत्य सहस्र शब्दों में विकसा
रूप रूप में ढला एक ही नाम, तोष है ।एक बार जो लगी आग, है वही तो हँसी
कभी, कभी आँसू, ललकार कभी, बस चुप्पी ।
मुझे नहीं चिंता वह केवल निजी या किसी
जन समूह की है, जब सागर में है कुप्पीमुक्त मेघ की, भरी ढली फिर भरी निरंतर ।
मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भर कर
मुझे उठाएगा सहस्र कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाहें ही स्वर शर भास्वर
मुझ में ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को ही भर लेंगे ।
हैं टूट रहे बरसे बादर
जाने क्यों टूट रहा है तन !बन में चिड़ियों के चलने से
हैं टूट रहे पत्ते चरमर
जाने क्यों टूट रहा है मन !घर के बर्तन की खन-खन में
हैं टूट रहे दुपहर के स्वर
जाने कैसा लगता जीवन !