“समलैंगिक संबंध उचित या अनुचित”

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ईश्वर की बनाई दुनिया में इंसानी मन में सहस्त्र तृष्णाएं पनपती है, कोई क्यास नहीं लगा सकता किसीकी मानसिकता का बस अनुमान लगाते समीक्षा या आलोचना कर सकते है।
समाज में बहुत सारे ऐसे मुद्दे है जो हमारा ध्यानाकर्षित करते है, उनमें से एक मुद्दा है “समलैंगिक संबंध” विपरित लिंग के दो व्यक्तियों में प्रेम संबध सहज है और स्वीकार्य भी पर समलैंगिक व्यक्तियों की क्या मानसिकता रहती होगी ये सोचनिय बाबत है। बहुत से लोग इस विषय को छेड़ने से कतराते है पर ये समाज की सच्चाई है जिसे हम नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते।
प्रकृति ने महिला और पुरुष को एक-दूसरे के पूरक के रूप में दरज्जा दिया है। इसीलिए विपरीत लिंगों के लोगों का एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होना सामान्य घटना है। लेकिन आधुनिक होते समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जिन्हें हम समलैंगिकों की श्रेणी में रखते हैं।
जिन लोगों को समाज समलैंगिक कहता है वह विपरीत लिंग के बदले समान लिंग के लोगों के प्रति शारीरिक आकर्षण रखते हैं, वहीं समान और विपरीत दोनों के ही प्रति समान रूप से भी आकर्षित होते हैं। क्या वजह रहती होगी ऐसी मानसिकता की?
बड़े-बड़े समीक्षकों के द्वारा कई तर्क- वितर्क होते रहे है इस विषय पर। कोई कहता है ये मानसिकता एक बीमारी है, तो कोई कहता है इंसान की अपनी पसंद है। वैसे देखा जाए तो हर इंसान को अपनी पसंद अनुसार जीने का पूरा हक है। सोचना ये है की हम इस विषय का मूल्यांकन किस आधार पर करते है। क्या ये सहज बाबत है, ऐसे संबंधों को मान्यता मिलनी चाहिए? या ऐसी मानसिकता का बहिष्कार करना चाहिए ? दो मर्दो के बीच ऐसे संबंध वाले को ‘गे’ का उपनाम दिया जाता है और ऐसे संबंध वाली दो महिलाओं को ‘लेस्बिएन’ कहा जाता है।
समलैंगिकों के हक़ में सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा-377 की क़ानूनी वैधता पर मोहर लगा दी है की अब आपसी सहमति से दो समलैंगिकों के बीच बनाए गए संबंध को आपराधिक कृत्य नहीं माना जाएगा।
कोई कहता है समलैंगिकता कोई मानसिक विकार नहीं है बल्कि यह सेक्सुअलिटी का एक सामान्य रूप है। तो कोई इसे व्यभिचार और चरित्रहीनता मानते है। अदालत के फ़ैसले से परे ले धर्म की बात करें तो धर्मों में समलैंगिक संबंधों को किस रूप में देखा गया है ? सवाल ये है कि क्या धर्म में समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक व्याभिचार या पाप है? उसमें भी ये विषय मतमतांतर पर चला आ रहा है
समलैंगिकता वाली बहस हमेशा ही पाखंड और दोहरे मापदंडों की वजह से गलत ट्रैक पर जाकर अटक जाती है।
भगवान शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर वाला है जिसे आज की भाषा में एंड्रोजीनस सैक्सुअलिटी की सहज स्वीकृति कहा जा सकता है। मिथकीय आख्यान में विष्णु भगवान का मोहिनी रूप धारण कर शिवजी को रिझाना किसी भी भक्त को अप्राकृतिक अनाचार नहीं लगता। समलैंगिकता का काल्पनिक स्रोत महाभारत में अर्जुन की मर्दानगी बृहन्नला बनने से कलंकित नहीं हुई, सहज भाव से अर्जुन ने अपनाया था।
शिखंडी का लिंग परिवर्तन शायद सेक्स रिअसाइनमेंट का पहला उदाहरण होगा।
कालजयी उपन्यास वात्स्यायन के कामसूत्र में निमोंछिए चिकने नौकरों, मालिश करने वाले नाइयों के साथ शारीरिक संबंध बनाने वाले पुरुषों का बखान विस्तार से किया गया है उस पर महानुभावों की बहस पहले कभी सुनी नहीं बल्कि इस संभोग सुख के तरीक़े भी दर्ज हैं। खजुराहो के शिल्प में भी ऐसे संबंधों को उजागर करते हुए पाया गया है, कई जगह दो स्त्रियों को रतिक्रिड़ा करते भी दर्शाया गया मतलब ये मानसिकता सदियों पुरानी है।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार ऑस्कर वाइल्ड से लेकर क्रिस्टोफ़र इशरवुड तक विलायती अभिजात्य वर्ग के लोग बेड ब्रेकफ़ास्ट एंड बॉय की तलाश में मोरक्को से लेकर मलाया तक घूमते रहे है। अपनी मानसिकता छुपाते नहीं।
दुर्भाग्य यह है कि पाखंड और दोहरे मानदंडों के कारण एलन ट्यूरिंग जैसे प्रतिभाशाली गणितज्ञ, वैज्ञानिक और कोड ब्रेकर को उत्पीड़न के बाद आत्महत्या करने की नोबत आई थी।
21वीं सदी के पहले चरण में वैज्ञानिक शोध यह बात अकाट्य रूप से प्रमाणित कर चुका है कि समलैंगिकता रोग या मानसिक विकृति नहीं है। इसे अप्राकृतिक नहीं कही जा सकता, जिनका रुझान पसंद इस संबंध की ओर होता है उन्हें इच्छानुसार जीवनयापन के बुनियादी अधिकार दिए जाने चाहिए।
फिर भी कुछ ज्ञाताओं को ये बात रुचिकर नहीं लगती और कहीं समीक्षा तो कहीं आलोचना होती रहती है और होती रहेगी शायद ऐसे संबंधों से जुड़ने वालें दो लोग ही इस विषय पर सच का प्रकाश बखूबी ड़ाल सकते है।
__भावना ठाकर,बेंगुलूरु) #भावु

Sach ki Dastak

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