
आधुनिकता की दौड़ में आज हम अपने मानवीय मूल्यों को ही बिसारते जा रहे हैं। हम यह भूल गए है कि आधुनिकता की समझ के लिए परंपरा का ज्ञान होना जरूरी है। देखा जाए तो वर्तमान दौर में या यूं कहें कि आधुनिकता की आड़ में हम अपनी परंपरा को, अपने संस्कारों को ही तिलांजलि दे रहे हैं। वर्तमान दौर में देश का युवा पढ़-लिख लेने के बाद पश्चिमी मोह-पाश में फंसकर अपने संस्कारों और संस्कृति को ही दरकिनार करना सबकुछ समझ बैठा है, जोकि कहीं न कहीं उसकी नादानी है या आयातित सोच का प्रभाव। ऐसे में एक उक्ति याद आती है कि, “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल।” जैसे कि व्यक्ति अपनी भाषा में ही उन्नति कर सकता है यह भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का कहना है। वैसे ही हम अपना विकास अपनी संस्कृति और परंपरा का निर्वहन करके ही कर सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज का युवा यह भूल गया है कि मॉर्डन होने का मतलब यह कतई नहीं है कि हम अपनी संस्कृति को ही भूल जाए। ये सच है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन की प्रक्रिया परंपरा की नवीनता को जन्म देती है। लेकिन नवीनता का प्रारंभ शून्यता से तो नहीं हो सकता ना? और नवीन होने का मतलब यह भी तो कतई नहीं कि हम अपनी जड़ों को भूल जाए? कहते हैं कि जो पेड़ अपनी जड़ें छोड़ देता है, उसे गिरने में ज्यादा समय नहीं लगता। इतना ही नहीं इतिहास साक्षी है कि जब-जब इंसान अपने मानवीय मूल्यों से दूर हुआ है तब-तब उसका पतन हुआ है। इसके अलावा किसी ने सच ही कहा है कि किसी देश को यदि नष्ट करना है तो उसकी संस्कृति को नष्ट कर दो वो देश स्वतः ही समाप्त हो जाएगा और आज यही हो रहा है पर अफ़सोस की हमारी युवा पीढ़ी को यह कहाँ नजर आता है, उसने तो आधुनिकता की पट्टी आंखों मे बांध रखी है। विज्ञापनों की बाढ़ ने उसे आधुनिक होने के लिए उद्देलित कर रखा है भले ही उसके लिए चाहें संस्कृति और सभ्यता पर ही प्रश्न-चिह्न क्यों न खड़ा करना हो?
अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले में हुई एक शादी ने मीडिया में काफी सुर्खियां बटोरी। इसकी वजह भी अजीब थी, एक आईएएस अधिकारी ने अपने विवाह में कन्यादान की रस्म को करने से मना कर दिया। तर्क दिया कि वह दान की वस्तु नहीं है। कन्यादान जैसी परंपरा को सामाजिक बुराई बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। एक कहावत है कि अधजल गगरी छलकत जाए। अब इसे अधूरा ज्ञान नहीं तो ओर क्या कहेंगे? जब मानव सभ्यता का आधार स्तम्भ विवाह है , जो मानव को सामाजिक स्वरूप प्रदान करता है। विवाह समाज संचालन की अहम कड़ी है। एक संस्कार है जो समाज को आगे बढ़ाता है। वहीं वेदों में कहा गया है कि विवाह दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है। विवाह के बाद दो अलग-अलग प्राणी अपने अस्तित्व को समाप्त कर एक नए जीवन की शुरूआत करते हैं। विवाह संस्कार न होगा तो समाज में अराजकता पैदा होगी। फ़िर उसमें होने वाली रीति और नीति पर सवाल क्यों? लेकिन हमें इससे क्या हमें तो मॉर्डन बनना है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं जब हमारी संस्कृति हमारी परम्पराओं का मजाक बनाया गया है। कुछ समय पहले ही मान्यवर कंपनी का एक विज्ञापन आया जिसमें आलिया भट्ट शादी की रस्मों पर सवाल उठाते दिखाई दी। विज्ञापन में बताया गया कि कन्या कोई दान की वस्तु नहीं। कन्यादान नहीं बल्कि कन्यामान की परंपरा की वकालत की। इसमें कोई बुराई नहीं कि कन्यादान को कन्या के मान के साथ जोड़ा जाए। पर क्या यह जरूरी है कि हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ खिलवाड़ किया जाए। वैसे गौर करने वाली बात यह भी है कि बॉलीवुड हो या फिर विज्ञापन जगत। सबको अपनी क्रिएटिविटी हिन्दू रीतिरिवाजों पर ही दिखानी होती है। हमेशा हिंदुओं को टारगेट किया जाता है। ऐसी सैकड़ों फिल्में बनी जिसमें मनोरंजन के नाम पर हमारी भावनाओं को आहत किया गया है। सेंसरबोर्ड तक ने कभी इन पर कैंची चलाना जरुरी नहीं समझा। यहां तक कि हमारे मीडिया ने भी इनका महिमामंडन करने का ही काम किया है।
हिन्दू विवाह में पाणिग्रहण संस्कार की बात कही गई है। अग्नि को साक्षी मानकर कन्या का पिता अपनी बेटी के गोत्र का दान करता है। जिसके बाद कन्या अपने पिता का गोत्र त्याग कर पति के गोत्र में प्रवेश करती है। यह कहीं नही कहा गया कि कन्यादान में पिता अपनी बेटी का दान करता है। दान का अर्थ होता है किसी वस्तु पर से अपना अधिकार खो देना। कन्या न कोई वस्तु है और न ही शादी के बाद कन्या का अपने परिवार से सम्बंध खत्म होता है। ऐसे में कन्यादान जैसी पवित्र रस्म को वामपंथी मूर्खता या आयातित सोच का शिकार क्यों बनाया जा रहा है? ऐसी क्या वजह है कि जो सिर्फ़ आए दिन हिन्दू धर्म पर सवाल उठाए जाते है। हमारी परम्पराओ को आधुनिकता की आड़ में नीचा दिखाने का स्वांग रचा जाता है। हिन्दू विवाह पद्धति वैदिक काल से चली आ रही है। हमारे वेद पुराणों ने पत्नी को पति के अर्धभाग की संज्ञा दी है। विवाह को शारीरिक वासना की तृप्ति नहीं बल्कि एक धार्मिक अनुष्ठान माना गया है। जहां सप्तपदी में अग्नि को साक्षी मानकर मंत्रोचार के साथ वर वधू एक दूसरे का सुख-दुःख में साथ निभाने की कसमें खाता है। वर्तमान दौर में तो यह फैशन बन गया है कि भारतीय परम्पराओ का मज़ाक बनाया जाए। हमारी संस्कृति की व्याख्या को गलत ढंग से प्रचारित प्रसारित किया जाए। फिर सवाल यही उठता है कि हिन्दू धर्म को ही क्यों निशाना बनाया जाता है? क्यों ये तथाकथित बुद्धिजीवी किसी और धर्म के खिलाफ़ आवाज नहीं उठाते। हिन्दू धर्म में शादी को ‘पवित्र बंधन’ कहा गया है। वही मुस्लिम समाज मे तो इसे एग्रीमेंट का नाम दिया गया है। एक मामले की सुनवाई में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी कहा है कि, ” मुस्लिम निकाह एक एग्रीमेंट है, जिसके कई मतलब हैं, यह हिंदू विवाह की तरह कोई संस्कार नहीं और इसके टूटने से पैदा होने वाले कुछ अधिकारों और जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटा जा सकता। फिर भी इस कांट्रेक्ट मैरिज पर कोई सवाल नहीं। जिसमें मेहर अहम होता है। जिस तरह से वस्तु के विक्रय का मूल्य निर्धारित किया जाता है उसी तरह मुस्लिम विवाह में भी मेहर निर्धारित की जाता है। यहां तक कि तलाक का अधिकार तक पुरुषों को ही सिर्फ़ दिया जाता है। पर इसमें वर्तमान समाज को कहाँ बुराई नज़र आना है। ऐसे में समाज का दोहरा रवैया साफ दिखाई देता है। हिंदुओं को ही हमेशा टारगेट किया जाता है। अब यह हमारी उदारता कहे या कमजोरी, लेकिन जब अपने ही किसी जड़ को खोदने में लग जाएं, फ़िर चिंतन और मनन तो होना चाहिए।
वैसे भारत को अपनी पुरातन संस्कृति के कारण ही विश्वगुरु का गौरव प्राप्त हुआ है। एक तरफ हमारे देश के युवा पश्चिम संस्कृति की ओर रुख कर रहे है और उनका अपनी संस्कृति से मोह भंग हो रहा है तो वही दूसरी तरफ विश्व के अन्य देश बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृति को अपना रहे हैं। आज यूरोपीय राष्ट्र और अमेरिका में योग,आयुर्वेद,शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा का चलन बढ़ रहा है। हम अपनी जड़ी बूटियों को भूल रहे है जबकि अमेरिका जैसे देश उसे पेटेंट करवा रहे है। पाश्चात्य संस्कृति के लोग भारत आकर संस्कार और मंत्रोच्चार से विवाह बंधन में बंध रहे है। लेकिन हमारी युवा पीढ़ी है जो उन्ही संस्कारो को दकियानूसी बताकर खिलवाड़ करती है। हमारे संविधान का आर्टिकल 51(सी) वैज्ञानिक सोच की वकालत करता है। लेकिन विवाह जैसे बंधन का विरोध करना कौन सा वैज्ञानिक सिद्धांत है। हम वसुधैव कुटुम्बकम की परंपरा को मानने वाले लोग है। जहाँ सभी धर्म का उनकी परम्पराओं का सम्मान करने की बात कही जाती है और हमारा संविधान भी धार्मिक स्वतंत्रता की पैरवी करता है। फिर किसी धर्म विशेष पर सवाल उठाकर आधुनिकता का ढोंग रचना गलत है और यह विज्ञापन से लेकर हर जगह से बंद होना चाहिए और इन पहलुओं पर चिंतन करने की जरूरत तो तब ज्यादा है, जब अपने ही आधुनिकता या आयातित सोच से अगर उसपर सवाल उठाने लगे!
__सोनम लववंशी
स्वतंत्र लेखिका एवं टिप्पणीकार
Sach ki Dastak
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