जवान के साथ एक महान दिन✍️सुमित गौतम
साल 2011 मैं दिल्ली में डीआरडीओ की एक लैब ‘इनमास’ में अपना प्रोजेक्ट वर्क पूरा कर रहा था। गाँधी विहार में रूम लेकर हम तीन दोस्त रहा करते थे। घर से आये पैसों को खर्च करने में कोई एहतियात नही था, तो आदतानुसार महीने का अंतिम पखवाड़ा गरीबी में गुजरता था। हाथ तंग हो जाता था, तो खाना बनाने का सामान भी दिहाड़ी व्यवस्था में खरीदा जाता था।
अंतिम दस दिन इंस्टीटूट भी पैदल चले जाते थे, जिससे दाना पानी चलता रहे। घर की गालियों के मुकाबले ये ज्यादा आरामदायक था। कॉलेज के अंतिम दिनों में जब भविष्य की कोई निश्चित योजना और व्यवस्था न हो उस समय घर के माहौल को बिगाड़ना कोई समझदारी बिलकुल नही थी तो अतिरिक्त पैसों के बारे में सोचना एक आत्मघाती निर्णय था।
ठंड का मौसम था। तीन लोगों में दो रजाइयां थी। ऐसे में किसी मेहमान या दोस्त का आना हम बिल्कुल भी अफ़्फोर्ड नही कर सकते थे। जेब में पैसे न हों तो आपस की लड़ाइयाँ भी आक्रामक हो जाती हैं। एक शाम एक दोस्त नाराज होकर अपने किसी और दोस्त के साथ उसके रूम पर चला गया। बाकी बचे हम दो किसी बात पर एक दूसरे को गालियाँ देते हुए इंस्टिट्यूट से लौट रहे थे तो दोस्त के पास उसके मामा का फोन आया कि वो दिल्ली आ रहे हैं। श्रीनगर से दिल्ली आकर उनको एक ट्रैन पकड़ कर घर जाना था लेकिन ट्रैन लेट हो जाने के कारण उनकी अगली ट्रैन बिना उनका इंतजार किये निकल गयी।
इसलिए उनको एक दिन दिल्ली में गुजारना पड़ेगा। ये खबर हमारे खेमे में किसी हैंडग्रेनेड की तरह आकर गिरी। जेब में बहुत थोड़े पैसे थे। खाना बनाने का सामान खरीदा गया। रूम पहुंच कर तैयारी करने लगे। ट्रेन को रात ग्यारह बजे नईदिल्ली के स्टेशन पर पहुँचना था। खाना बन चुका था, भूख तेज लगी थी तो हम दोनों ने अपने हिस्से की रोटियां खाई और मामा जी के लिए भोजन ढक कर उन्हें लेने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ चल दिए।
जीटीबी नगर से मेट्रो लेकर हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के मेट्रो पर पहुंचे। बाहर निकल कर दोस्त ने मामा जी को कॉल किया। कॉल कनेक्ट नही हो पा रहा था। हम बाहर चाय पीने निकल गए। स्टेशन लौटने पर पता चला ट्रैन दो घंटे और लेट हो चुकी थी। दोस्त ने बताया मामा जी सीआरपीएफ में नौकरी करते हैं और श्रीनगर में पोस्टिंग है। छुट्टियों में घर जा रहे हैं। करियर की चिंताओं और इन्स्टिट्यूट की लड़कियों के बारे में बात करते करते तकरीबन एक बजे थे की ट्रैन आने की घोषणा हुई। थर्ड ऐसी के डिब्बे से छह फुट तीन इंच का भारी भरकम शरीर निकलते देख मैं पहचान गया कि यही वो प्राणी है जिसने हमारी जमी जमाई दिनचर्या को उथल पुथल करने का बीड़ा उठाया है।
दोस्त ने परिचय कराया, उन्होंने अपने दोनों हाथों से मेरे दोनों बाजुओं में धौल जमा दी। मैं इस अप्रत्याशित हमले से अंदर ही अंदर चरमरा गया, लेकिन उस समय मुझे यकीन हो गया कि देश की सुरक्षा बहुत मजबूत हाथों में है। दो भारीभरकम बैग थे, जो उन्होंने हम दोनों को पकड़ा दिए और खुद उन्होंने गत्ते के एक कार्टन को अपने दोनों हाथों में उठा लिया। अब हमारी टुकड़ी का नेतृत्व मेरे हाथ से फिसल कर उनके हाथ में चला गया था।
बाहर निकलते ही वो एक ऑटो में बैठ गए। बैग को ऑटो के पीछे रखा और कार्टन को एहतियात से रखने की समझाइश देते हुए ऑटो वाले को एक प्यार भरी गाली दी। उसके बाद उन्होंने मुझसे पूँछा की कहाँ चलना है। मैंने ऑटो वाले को गाँधी विहार चलने को कहा। उन्होंने बीच में खाने के बारे में पूँछा हमने उन्हें बताया कि रूम पर भोजन की व्यवस्था है। उन्होंने फिर भी कहा कुछ ले लेते हैं, लेकिन हम लोगों ने मना कर दिया। करीब आधे घंटे में हम जीटीबी नगर होते हुए गाँधी विहार अपने रूम पर पहुंचे।
रूम पर पहुंचते ही हमारे फाख़्ते उड़ गए। दरवाजा भीतर से बन्द था। खटखटाने पर दूसरे दोस्त ने दरवाजा खोला। मैं सीधा किचन की तरफ भागा, वहां गंदे बर्तनों के अलावा कुछ नही था। दोस्त वापस लौट कर बचा हुआ खाना खा चुका था। रात के दो बजे अब क्या होता।
किचन में एक आलू एक बैगन और एक प्याज बची थी, आटा पर्याप्त था। मैं बाहर निकला तो मामा जी कार्टन खोल रहे थे। कार्टन में बारह रम की बोतलें मुंडी उचका कर झांक रही थी। मामा जी ने एक बोतल को उसकी गर्दन पकड़ कर बाहर खींच लिया और बगल में रखी तीन स्टील की गिलासों को भर दिया। एक गिलास उठा कर खत्म करते हुए किचन की ओर दौड़ लगा दी। सामने रखी प्याज को मुक्के से कचूमर बना दिया और प्लेट में नमक निकाल कर बैठ गए। बाकी की दोनों गिलास अनछुई रखी थी। गालियाँ देते हुए उन्होंने गिलास उठाने को कहा और कहा दवाई है ऊपर से नीचे तक पी जाओ। एक तो लाल चमकती रम, ऊपर से स्टील की गिलास, पानी की मात्रा शून्य और खाने के नाम पर केवल प्याज और नमक। नेतृत्व हमारे हाथ से निकल चुका था। भगवान ऐसे हालात किसी को न दे। गले की नली से लेकर पेट की दीवारें तक की सिंकाई हो गयी थी।
दोस्त को मैंने खाने के हालात के बारे में बताया, वो खाना बनाने के बहाने किचन की तरफ निकल गया। मैं उनसे उनकी नौकरी के बारे में पूंछने लगा। वो बताने लगे, वहाँ हालात कभी कभी बहुत खराब हो जाते हैं। बर्फ गिरती है, तेज बारिश होती है पर पैट्रोलिंग उस समय भी नही रुकती। एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में पानी का डिब्बा लिए निवृत होते हुए भी चौकन्ना रहना पड़ता है। उन्होंने कई खतरनाक इलाकों के बारे में भी बताया। कई घटनाएं बताई जहाँ वो खतरे में फँस गए थे। उन्होंने कहा कि सीमा से ज्यादा खतरनाक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की पोस्टिंग होती है। यहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। यहाँ हमेशा ही युद्ध के हालात बने रहते हैं। बात करते वक़्त कभी कभी वो अपनी मुट्ठियों को भींच कर हवा में लहरा देते थे। मैंने उनसे पूँछा कि आपको पसंद है ये नौकरी, तब उन्होंने कहा हम लोग अब ये सब नही सोचते।
अपना काम है, सोच कर करते हैं। अब आदत में आ चुका है ये सब। खतरे झेलना, चौकन्ने रहना, जरूरी नियमों का पालन करना। अब अच्छा ही लगने लगा है वहाँ । उन्होंने किसी भारी भरकम शब्दों का उपयोग नही किया, लेकिन उनके बात करने का तरीका बता रहा था कि उन्हें अपने काम पर गर्व है। उन्होंने अपने काम में किसी तरह का एहसान नही जताया, लेकिन एक आत्मगर्व जरूर था, जो प्रवाहित होते हुए मेरे शरीर में सनसनी फैला चुका था।
खाना तैयार हो चुका था। दोस्त ने कुछ रोटियाँ और बैगन आलू की सब्जी बना दी थी। मैंने मामा जी से अपनी आधी अधूरी व्यवस्थाओं के लिए खेद व्यक्त किया। उन्होंने कहा बन्द कमरे में बैठ कर इत्मीनान की रोटी कितने दिन बाद खाई है। उन्होंने कहा सीमा पर जवान और दूसरे शहर में स्टूडेंट की हालत एक ही जैसी है।
खाने के बाद हम सब ने बिस्तर पकड़ लिया, दोनों रजाइयों को जोड़ लिया गया। मामा जी किनारे पर थे। उन्होंने घर फोन लगा लिया था। फोन पर पहले तो वो शायद घर लेट पहुंचने का कारण समझा रहे थे। कुछ देर में वो घर की सारी खटिया तोड़ डालने की बात करने लगे। मैं और मेरा दोस्त अपना मुंह दबा कर रजाई के भीतर हँसते रहे। वो हम लोग को सोया हुआ समझ कर स्वच्छंद महसूस करने लगे। मैं और मेरा दोस्त मनोरंजन की उच्चत्तम अवस्था में थे।
हँसी थी की रुक नही रही थी लेकिन हम किसी तरह की हरकत करके इस क्रम में कोई विघ्न नही डालना चाहते थे। बातें ऐसी हो रही थी जैसे कोई कॉलेज का लड़का अपनी प्रेमिका से पहली बार अकेले में मिलने की योजना बना रहा हो। हम जानते थे ये क्रम लंबा चलने वाला है, पर दवाई का असर गहरा था। कब गहरी नींद आ गयी पता ही नही चला।
सुबह नींद खुली, रजाई से सिर बाहर निकाला तो नजर सीधे रम की बोतल पर पड़ी जिसे अभी पंद्रह मिनट पहले ही खोला गया था। ऐसे सुबह सुबह कौन पीता है भाई। पर मामा जी पपीता छील कर उसके टुकड़े कर रहे थे। फलों से भरी थैली बगल में लुढ़की थी।
नमकीन का पैकेट खुल कर आज ही के ताजे अखबार के ऊपर फैल चुका था। मेरा सिर पचास किलों का लग रहा था, पेट में जलन हो रही थी। लेकिन रजाई से बाहर निकलना यानि अपने आपको बाहर तैयार वातावरण के सुपुर्द कर आत्मसमर्पण कर देना था। मुझे जल्दी उठकर कम से कम दो ग्लास पानी पीना था, ताकि पेट की गर्मी थोड़ी शांत हो।
उन्होंने रजाई से झांकते देखा तो रजाई खींचते हुए बोले ”जवान! उठो विदा की बेला आ गई है” उसके बाद उन्होंने कहा जाओ फ्रेश होकर आओ खाना तैयार है। वो किचन की तरफ बढ़ गए। मैं वापस लौटा तो वहाँ थालियाँ सज चुकी थी। उन्होंने सुबह उठकर सामान लाकर खुद ही खाना तैयार कर लिया था। हम सब खाना खाकर स्टेशन की तरफ चल दिए।
ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी। मामा जी घर जा रहे थे। लेकिन उनके चेहरे में हमें छोड़ने की तकलीफ भी दिखाई दे रही थी। जिसमें जरा भी बनावटीपन नही था। सैनिक जहाँ भी होते हैं पूरी तरह वहीं के हो जाते हैं, ये बात शायद इनसे बेहतर कोई नही कर सकता।
शायद उनके लिए कालखण्ड केवल वर्तमान से लेकर कुछ ही क्षण आगे तक चलता है। हर समय उत्सवधर्मिता निभाते हुए, जीवन के सम्पूर्ण आनंद को निचोड़ लेना उनसे बेहतर कौन सिखा सकता है। इसलिए मृत्यु को भी उत्सव की तरह स्वीकार लेना उनके अलावा किसी को नही आता। ऐसी कठिन परिस्थितियों के बीच जीते रहना, खुद को बचाये रखना, अंदर के मनुष्य को बचाये रखना, उत्सव को बचाये रखना, तमाम जिम्मेवारियों को समेट कर चलना वैरागियों के लिए भी मुश्किल है।
वापस कमरे में लौटते हुए हम उनकी रात की फोन पर उनकी बातों के बारे में बात कर आनंद ले रहे थे। लेकिन जेहन में एक पूरे के पूरे हिस्से में उनका व्यक्तित्व घर कर चुका था। दो साल बाद जब मैं टेकनपुर ग्वालियर में कंबाइंड आर्म्ड पुलिस फ़ोर्स की परीक्षा के अंतिम चरण से बाहर हुआ, तो रास्ते भर मैं खुद को पराजित महसूस करता रहा। खुद के अस्तित्व को एक बेहतर दिशा देने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर मैं खो चुका था।
मामा जी से मिलने का अवसर दोबारा नही मिला, लेकिन पुलवामा के कायरतापूर्ण हमले में शहीद हुए जवानों के बारे में पता चला तो लगा एक एक जवान के साथ मेरा कोई गहरा रिश्ता है।
जैसे हर एक जवान मेरा बहुत सा हिस्सा अपने साथ लेकर देश के लिए कुर्बान हो गया। मुझे कभी नही लगा था, मैं ये घटना भी लिखूँगा लेकिन मैं अपने देश की सीमा और सुरक्षा के लिए तैनात सभी जवानों के प्रति और अधिक संवेदनशील हो गया हूँ। हमें ये सोचना होगा कि महज आंकड़े इस तरह की घटनाओं में हुई मौतों के साथ न्याय नही कर सकते। एक एक जवान अपने साथ पूरी की पूरी जिंदगी लेकर चल रहा होता जिनके साथ कई लोग जुड़े होते हैं।
भगवान करे इन जवानों को इनकी जिंदगी में अनेकों ऐसे सामान्य दिन मिलें जब ये दोस्ती कर सकें, प्रेम कर सकें, मुस्कुरा सकें, और कल के सपने देख सकें। हम सबकी ये जिम्मेदारी भी कि जब भी मौका मिले हम इन्हें इतने सम्मान के साथ नवाज़ें कि इनका आत्मगौरव इनके कठिन क्षणों में भी इन्हें सम्बल दे सके।
जय हिन्द जय भारत
अमर रहे हमारा देश और हमारी सेना
__सुमित गौतम
ज्ञान सरोवर, अरुण मार्ग
नेहरू नगर रीवा (म.प्र)