जुमले बनते चुनावी वादे – लेखिका अनुराधा सिंह की विशेष टिप्पणी –

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भारत का लोकतन्त्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। इसका अर्थ हम यह भी ले सकते हैं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने के कारण विश्व में लोकतान्त्रिक मूल्यों के रक्षण और लोकतन्त्र के श्रेष्ठ कीर्तिमान स्थापन की जिम्मेदारी भी हमारे ही है। लोकतान्त्रिक मूल्यों की श्रेष्ठ स्थापना को अपना दायित्व मानते हुये हम उस लक्ष्य की तरफ अग्रसर जा यें तो विश्व के लोकतन्त्रों को हम एक नई दिशा दे सकने में सक्षम हो सकते हैं, क्योकि संख्या में बड़ा होना ही पर्याप्त नहीं हमें लोकतान्त्रिक मूल्यों की हर कसौटी पर बड़ा बनना होगा। पर बहुत दुःखद है कि विगत कुछ दशकों से हमारे राजनेता केवल सत्ता प्राप्ति तक ही केन्द्रित हैं येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल कर सरकार में बने रहना ही उनका मुख्य उद्देश्य रह गया है। कई बार तो यह तक देखा गया है कि कोई राजनैतिक दल सरकार में हिस्सेदार भी है सत्तासीन भी है और पूरे कार्यकाल सरकार के विरूद्ध आग भी उगलत रहता है जबकि मूल्य और नैतिकता कहती है कि यदि सरकार की नीतियों जनविरोधी हैं तो उस सरकार का चलना जनहित के लिये उचित नहीं तब तो उन सहयोगी दल दलों को सरकार से समर्थन वापस ले लेना ही नैतिकता है पर सरकार की भागीदारी का लोभ छोड़ना सबके बस की बात नहीं।
हमारे देश में हर समय लोकतन्त्र का पर्व चुनावों के रूप में चलता रहता है। हजारों लाखों की संख्या के जनसमुदाय के सामने पूरे जोश खरोश के साथ हमारे नेता अपनी योजनायें, देश प्रदेश को चलाने की सोच भाषणों के रूप में व्यक्त करते हैं। यदि आप दलों से निरपेक्षता रखते हुये चुनावी भाषणों को सुनें तो लगता है कि बस इतना ही हो जाये तो हमारी समस्त समस्यायें समाप्त हो जायेंगी। जनमानस भी उन चुनावी वादों को सुन कर राजनैतिक दलों के को अपना मत देकर विश्वास व्यक्त करते हैं परिणामस्वरूप सरकार का गठन होता है।जनता का दायित्व यहीं से हाशिये पर चला जाता है।

अब जनता इन्तजार करती है देश प्रदेश और अपनी स्थिति में परिवर्तन का कुछ साल इंतजार के बाद लोगबाग प्रश्न पूछने लगते हैं कि आपने तो यह कह कर सरकार बनाई थी पर कुछ हुआ नहीं तब सरकार की तरफ से जवाब आता है कि वह तो चुनावी जुमला था। यह आमजनमानस के लिये बहुत कष्टकर रहता है कि हमनें तो अपना दायित्व पूर्ण किया जब सरकार की बारी आई तो आपने कह दिया कि वह तो चुनावी जुमला था। मैं मानती हूं कि चुनावी रैलियों में राजनेता लोकतन्त्र के यज्ञ में जनमानस की आत्मा को साक्षी मान कर वाणी की ऊर्जा को प्रज्जवलित कर जनमानस के सामने वचनबद्ध होता है कि मेरी सरकार बनने पर यह होगा और तत्पश्चात वचनभंग उचित नहीं है।

हमारे देश में यदि हम रूपये दो रूपये की सामग्री, सेवा का क्रय करें और वह वादों के अनुरूप गुणवत्तापक न हो तो हमें उसके विरुद्ध विधिक अधिकार प्राप्त हैं, तो जब पूरे देश के संसाधन, सम्पत्ति, सुरक्षा इत्यादि किसी दल के हाथों में सौंपने की बात हो तो मतदाता के पास उन वायदों। घोषणाओं के क्रियान्वयन का विधिक अधिकार होना ही चाहिये। राजनैतिक दलों को इतना तो नैतिक होना ही चाहिये कि जो काम वे जनहित में कर सके उतने ही भाषण जनताा के समक्ष दें अन्यथा तो लोग भ्रमजाल में फसते रहेंगे सत्ता प्राप्ति की पंचवर्षीय योजनायें चलती रहेंगी और लोकतन्त्र धीरे-धीरे अपना विश्वास खोता रहेगा और किसी दिन इस व्यवस्था पर जनमानस का विश्वास टूट जायेगा।
वह दिन हमारे गौरवशाली लोकतन्त्र में न आये इसके लिये राजनैतिक दलों को आगे आकर पहल करनी होगी। जनमानस का विश्वास अटूट करना होगा, राष्ट्रवादी सोच विकसित करते हुये केवल सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य से आगे राष्ट्रनिर्माण को ध्येय बनाना होगा और नीति बनाने वालों को चुनावी वादों और चुनावी घोषणापत्रों पर मतदाता के अधिकारों की रक्षा करने के लिये आगे आना ही होगा और तब हमारा लोकतन्त्र विश्व का श्रेष्ठ लोकतन्त्र होगा।

(अनुराधा सिंह)
बहराइच उ०प्र०

Sach ki Dastak

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