आधुनिक शिक्षा से गायब हुआ संस्कार
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सच की दस्तक चन्दौली डेस्क ( जितेंद्र मिश्रा)
वर्तमान दौर में केन्द्र व प्रदेश सरकार द्वारा नित तए कदम उठा कर शिक्षा के स्तर को उचा उठाने में लगे हुए है लेकिन उनका यह प्रयास कोरा कागज साबित होता दिख रहा है। प्रदेश सरकार द्वारा प्रत्येक विकास संसाधन केन्द्र क्षेत्र में 5-5 विद्यालय इंग्लिश मीडियम के रूप में चयनित कर वहा प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति कर दी लेकिन उनका यह प्रयास भी सफल होता नजर नही आ रहा है। जबकि गौर करे तो पहले की शिक्षा से आज की शिक्षा व्यवस्था काफी बेहतर हुई है। लेकिन गुणवत्ता का Pस्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। बच्चों का मूल ही गायब होता जा रहा । आलेश-सुलेख की प्रथा समाप्त हो जाने के कारण मात्राओ में त्रुटिया आम बात है इतना ही बल्कि शिक्षकों में भी यह कमी काफी हद तक देखी जा सकती है। जिससे छात्र छात्रा का बेस ही समाप्त हो जा रहा है। भारत सरकार हिन्दी को तेजी से बढ़ावा दे रही है तो प्राथमिक विद्यालय से हिन्दी ही पलायन होता जा रहा हैं। वास्तव में यह कैसे सोचा व समझा जा सकता है कि हिन्दी की नीव मजबूत व लम्बी अवधि तक टिकी रहेगी। अगर प्राथमिक विद्यालय के बच्चो से हिन्दी में अंक लिखने को कह दिया जाता है तो वह निरूत्तर होकर अपनी गर्दन झुका लेते है। इतना ही नही बल्कि स्नातक व परास्तक में में छात्रा छात्राओं में भी यह बिमारीप्रायः देखने को मिलती है। अब सवाल यह उठता है कि इस पर कैसे लगाम लगाई
जाय और नीव को मजबूत किया जाय। मात्रांओं की अशुद्धियां अंको का हिन्दी मे ंलिखना पढ़ना जो एक विकट समस्या का रूप धारण करती जा रही है। जबकि बिगत ढ़ाई दशक पूर्व यह बिमारिया नही थी और ना ही इतने शिक्षा के समुचित साधन ही। फिर भी नीव मजबूत की मजबूत बनी रही। इस पर सरकार व जिम्मेदरानों को
सोचना होगा तभी हिन्दी की सार्थकता को बरकरार रखकर शिक्षा की नीव कोमजबूत बनाया जा सकता है ।
कौन है जिम्मेदार-अभिभाव या शिक्षक लोगां की माने तो पहले की शिक्षाव्यवस्था में अनुशासन शब्द ऐसा था कि बच्चों सहित मातहतों की भी नीद हराम कर देता था। लेकिन अनुशासन शब्द के हटते ही मातहतो सहित बच्चों के अन्दर का भी डर समाप्त हो गया । जिसेस ऐसे दुर्गम परिणाम सामने आने लगे।
कही ऐसा तो नही कि इसमें शिक्षा माफियाअे की भी भूमिका अग्रणी रही है जब से पूर्ववर्ती सरकार में कक्षा 1 से 10तक पास फेल पास होने की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी हो तब से ऐसा हुआ हो। इस प्रश्न पर अभिवकां का कहना है कि जब सरकार ही नही चाहती है कि बच्चा मेहनत व लगन के साथ पढ़े और बढ़े।पूर्ववर्ती सरकारे तो बस साक्षर बनाने में जुटी हुयी थी जिससे स्व केन्द्र परीक्षा कराकर सबको पास करना उनको साक्षर बनाने का एक मकसद बन गया था।
प्रबुद्धजनां का कहना है कि जब भाजपा सरकार बनी लोगों को कल्यान सिंह के जमाने की शिक्षा व्यवस्था की झलक दिखलायी देने लगी लेकिन सपने भी चकनाचूर हो गये। बलिक परीक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व की पेपर मोबाइलो पर हल होने लगा। अब ऐसे दौर कैसे शिक्षा की गुणवत्ता सुधरेगी इत्यादि सब बातो लोगों के दिलो दिमाग में एक यक्ष प्रश्न के समान घुम रही है कि इसका निदान कैसे सम्भव होगा।
शिक्षा की गुणवत्ता सुधाने में कही परिजनां की मजबूरी भी आड़े हाथ है।कारण कि जब-जब सरकारे बदलती तो शिक्षा की गुणवत्ता को ध्यान में न रखबल्कि प्रतिशत पर ज्यादा झुकाव देती है जिससे अभिभावक भी बच्चों कीशिक्षा व्यवस्था में शामील हो प्रतिशत बढ़ानें की होड़ में जुट जाता हैं।ऐसे में सरकार को कठोर से कठोर कदम उठा कर इस नकेल कसा जाना नितान्त आवश्यक है ताकि शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारा जा सके।