दृष्टि का विस्तार करके ध्यान से देखो मुझे तुम सदा पाओगे मुझको, वावरी हूँ मैं तुम्हारी ।बिन तुम्हारे मैं अधूरी, और मुझ बिन तुम सदा ।सृष्टि विधि की यह अनूठी, औ' रहेगी सर्वदा ।सृष्टि का आधार है यह, सब करें पालन इसेसाँवरे हो तुम हमारे, साँवरी हूँ मैं तुम्हारी ।तुम सदा पाओगे मुझको, वावरी हूँ मैं तुम्हारी ।।देह ही केवल नहीं मैं, भावना से मैं भरी हूँ।झर रही हूँ मैं निरन्तर, शुभ्र निर्मल निर्झरी हूँ ।लोक हित में है समर्पित, पूर्ण यह जीवन हमारायुग करों से भर उठा लो, गागरी हूँ मैं तुम्हारी ।तुम सदा पाओगे मुझको वावरी हूँ मैं तुम्हारी ।।सप्त स्वर आनंद भरते, रागमय जीवन हुआ ।भर दिया मधुरिम स्वरों से, प्रेम से जिसने छुआ ।झर उठे संगीत सरिता, कान में मधुरस घुलेअरुण अधरों में सजा लो, बाँसुरी हूँ मैं तुम्हारी ।तुम सदा पाओगे मुझको, वावरी हूँ मैं तुम्हारी ।।शुभ्र तारे साथ लेकर, द्वार पर आओ कभी ।मैं प्रतीक्षारत रहूँगी, नींद में होंगे सभी ।स्निग्ध सुरभित श्याम कुंतल, को विखेरे राह मेंहूँ खड़ी मुझको निहारो, विभावरी हूँ मैं तुम्हारी ।तुम सदा पाओगे मुझको, वावरी हूँ मैं तुम्हारी ।। ✍️श्याम सुन्दर श्रीवास्तव 'कोमल' व्याख्याता-हिन्दी अशोक उ०मा०विद्यालय, लहार जिला-भिण्ड (म०प्र०)