याद कर वो दिन मछेरे।याद कर, गये दिन मछेरे,जब नदी थी पास तेरे छान लाये तुम मछलियां, छोड कर मोती बहुतेरे ।थे मचलते ऊर्मियों पर जो सुमन सुचिर नहीं थे ,धार को आधार कहते, बहते मगन स्थिर नहीं थे ।जब खिली किरणें खिले,खोई किरण तो रूप खोये बुलबुले संग गुनगुनाते गुल ललचाते अ-बोये । तुम ललच गये तोड लाये,छोड आए जल जख़ीरे । याद कर गये दिन मछेरे ...।पाँख फरकाती लहर में जो उछलती ख़ूबसूरत वह ज़रूरत धार की बस धार उसकी भी ज़रूरत।धार के बाहर कब प्रीत-ज्वार का अहसास होता ,भूल बैठे तुम , हृदय नहीं, पाँख का प्रवास होता ।तब तलक ही मग्न मछली, गोद नहीं ले लें कछारें ।याद कर गये दिन मछेरे...।वह नदी अब भी वहीं है और गहती उर्मियां भी मिल गई फिर से मछलियां और बहती कुंभियाँ भी।सीपियाँ जो गर्भ तल पर थी सुरक्षित है सुरक्षित ,फाड़ आये जाल अपना फेंक पानी में अलक्षित ।गर्भ भरी गहरी नदी कहते न थकते थे किनारें ,याद कर गये दिन मछेरे...।बस यही अपराध तेराऔर तुम पापी हुआ है ,गाये आत्मवंचना से आप संतापित हुआ है ।स्वाद में भर चाँद तारे बादलों के पार जाना भूख की सच्चाइयों का कहां वाजिब यह बहाना !हो गगन चकमक भले ,कब हाथ आते हैं सितारे ।याद कर गये दिन मछेरे.....।✍️पंकज कु.बसंत
मुजफ्फरपुर बिहार