शेर कहने का सलीका, सीख ‘मेलाराम’ से

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पाकिस्तानी उर्दू अखबार जमींदार के सम्पादक मौलाना जफ़र अली खाँ ने एक बार किसी नौसिखिये शायर से
आज़िज़ होकर उसे समझाते हुए कहा था-
तोड़ता है शायरी की टांग क्यों ऐ बेहुनर,
शेर कहने का सलीका सीख मेला राम से।
सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में दीपोके गाँव में 26 जनवरी 1895 को पं० मेलाराम वफ़ा जी का जन्म हुआ। इनके पिता पं० भगत राम थे। परिवार गरीब था इसलिए इनकी प्राथमिक शिक्षा इनके ननिहाल सोबा सिंह गाँव में हुई थी। गाय-भैस चराते हुए इनका बचपन गुजरा।
रहट की गद्दी पर बैठकर भी पुस्तकों को पढ़ने का मोह छोड़ नहीं पाते थे। 17 वर्ष की आयु में पहला शेर इन्होंने कहा था तथा इतने कुशाग्र थे कि आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए अपने अध्यापक की गलतियों को सुधार देते थे। 10 वीं कक्षा पास करते ही इनकी शादी भी हो गई थी। उर्दू शायरी इनकी लत में शुमार थी। सन् 1922 में ये पं० राम नारायण अरमान दहलवी के शिष्य बन गए। प्राइवेट पढ़ाई करते हुए इन्होंने उच्च शिक्षा पूर्ण की तथा कुछ समय तक खालसा नेशनल कॉलेज लाहौर में उर्दू शिक्षक भी रहे।
पं० मेलाराम वफ़ा जी न केवल उच्च कोटि के शायर थे बल्कि पत्रकार, संपादक, कहानीकार, स्वतन्त्रता सेनानी तथा पंजाब के राजकवि भी थे।
एक शायर भला किसका हुक्म मानता है! आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहते हुए इन्होंने एक नज़्म “ऐ फिरंगी” कही थी जिसके एवज़ में इन्हें 1930 में दो साल की कैद ए सख़्त की सजा हुई थी। इनकी यह ग़ज़ल भी ब्रितानी हुकूमत के लिए चुनौती थी-
बर्तानिया से कह दो, अब ज़िल्लते गुलामी,
करता नहीं गँवारा, हिंदोस्ता हमारा।
बर्तानिया के तुम हो, हिंदोस्ता के हम हैं,
बर्तानिया तुम्हारा, हिंदोस्ता हमारा।
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय ने बंदे मातरम पत्र निकाला था। वफ़ा जी इसके सम्पादक रहे। इनका सम्पादकत्व इतना उत्कृष्ट और समसामयिक था कि उससे प्रभावित होकर 1925 में महामना पं० मदन मोहन मालवीय ने दैनिक भीष्म और बाद में वीर भारत का भी संपादक मनोनीत किया था। इनके सृजन के सम्मुख किताबों की संख्या बहुत कम है। इनके परिजनों की मानें तो इनके मरणोपरान्त  इनकी रचनाओं को चुराकर कुछ लोग नामचीन शायर बन गए।
इनकी मात्र दो ही पुस्तकें “सोजे वतन” और “संग – ए – मीली” उपलब्ध हैं। शायरी इनको विरासत में मिली थी। इनके बड़े भाई पं० संतराम जी भी शौकिया शायर थे। सोजे वतन को प्रकाशित करवाने का श्रेय इनके इकलौते बेटे सूरज प्रकाश भारद्वाज को जाता है जिनकी अकाल मृत्यु सड़क हादसे में हुई थी।
बेटे की मौत पर इनकी ग़ज़ल के शेर शोक संतप्त कर देते हैं-
इसलिए दस साल पहले ही किनारा कर गई,
देखती किस आँख से,बावा की माँ बेटे की मौत।
इससे बढ़कर बदनसीबी और क्या होगी वफ़ा,
बाप की आँखों के आगे, हो जवाँ बेटे की मौत।
ये दो पौत्रों के दादा भी बने। बड़े पौत्र के फौज में होने तथा छोटे पौत्र के कुशल सामाजिक न होने के कारण इनका अंतिम समय एकाकी और तनहाइयों भरा बीता। फकीर चन्द नामक व्यक्ति अंत तक इनकी सेवा में पुत्रवत् लगा रहा। इनका सृजन उर्दू में होने के कारण हिंदी के पाठक चाह कर भी काव्यरस से वंचित रह जाते है। अतएव इसके निदान स्वरूप पठानकोट के शायर राजेन्द्र नाथ रहबर ने इनकी पुस्तकों का हिंदी रुपांतर किया था जो आज भी उपलब्ध है। 
इनकी शायरी की लोकप्रियता का अंदाजा एक घटना से लगाया जा सकता है। एक बार इनका एक दोस्त इन्हें बदनाम हीरा मंडी में लेकर गया जहाँ उत्तम कोटि का गायन भी होता था। गायिका ने इनकी सादगी और खाली हाथ देखकर ऐतराज़ जताया। दोस्त के बहुत समझाने पर वह अनमन से राजी हुई। गायन सुनकर कोई प्रभावित हुए बिना न रह सका।
सबसे बड़ा आश्चर्य गायिका को तब हुआ जब इनके दोस्त ने बताया कि वह जिसका नज़्म गा रही है वह महान शायर ही सादगी की लिबास में हाज़िर है। यह सुनकर वह चरणों में गिर पड़ी। एक दूसरी घटना इनकी सादगी को और भी स्पष्ट करती है।
ये अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ कलम से बगावत करते हुए दो वर्षों तक जेल में बंद थे। एक व्यक्ति इनको अनपढ़ समझकर हँसते हुए कहा कि यह अखबार मुझे पढ़ने के लिए दे दो फिर बाद में फोटो देखते रहना। इनके साथ बैठे कांग्रेस के एक बड़े नेता जोर जोर से हँसने लगे। आगंतुक द्वारा चिढ़कर हँसने का कारण पूछने पर उस नेता ने बताया कि आप जिस व्यक्ति को अनपढ़ समझ रहे हो, यह व्यक्ति इस मशहूर अखबार का संपादक पं० मेलाराम वफ़ा हैं….।
वफ़ा जी कांग्रेस से तन मन से जुड़े थे। जब लाला लाजपत राय ने साइमन कमीशन के समय कांग्रेस का खुला विरोध करना शुरु किया तब वफ़ा जी ने उनका साथ और उनके पत्र का संपादन छोड़ दिया। भारत बँटवारे ने उनके स्थायित्व को तोड़कर रख दिया। पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और फिर पंजाब में घूमते रहे। कभी नया समाचार पत्र निकालते, कभी प्रकाशन करते तो कभी किसी अन्य पत्र में नौकरी करते। अखबारी नौकरी और पत्रकारिता ने इनको संजीदा शायर न रहने दिया।
शायरी को जीवन का मकसद और मूल पेशा न बनने दिया। इनकी शायरी की विरासत इनके सेवानिवृत्त फौजी बेटे श्री सुरेश भारद्वाज को मिली। इनकी प्रपौत्री सुश्री दीपाली सोढ़ी ने भी पूरी तन्मयता से हिंदी की विविध विधाओं में कदम रखा है। 
पंजाब के तत्कालीन राजनेता एवं पूर्व मुख्यमन्त्री सरदार प्रताप सिंह कैरो ने इन्हें राजकवि की पदवी से नवाज़ा था। पर इन्हें राजकीय बंधन कब रास आते! मात्र पाँच वर्षों में ही इन्होनें राजकवि के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। लखनऊ में “एक शाम वफ़ा के नाम” शीर्षक से कई वर्षों तक मुशायरा होते रहे। अभाव के दरम्यान भी प्रभाव कायम रहा।
लोग कायल हो जाते थे इनकी सादगी के। 19 सितम्बर 1980 को इहलोक से विदा हो गए। इनकी अंतिम यात्रा भी वैसी ही थी जैसी अक्सर समाज के भले मानुषों की होती है। सब मिलाकर एक दर्जन लोग शामिल हुए होंगे। बुढ़ापे में जब लोगों ने इनसे दूरी बननी शुरु कर दी थी तो इन्होंने एक ग़ज़ल में अपनी भावनाओं को बयान किया था।
एक शेर से यह स्पष्ट हो जाएगा-
अब  तुम  क्या  मेरी  खबर   लोगे?
अब तो तुमको ही मेरी खबर जाएगी।
___डॉ अवधेश कुमार अवध, असम 

Sach ki Dastak

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