“युवा” राष्ट्र का अनुत्तरित प्रश्न✍️लेखिका अनुराधा सिंह

यौवन की सुनहली धूप से जगमगाता शरीर जिसमें उत्साह की लहरें लगातार कुछ करने के लिये मानस पटल से टकराती रहती हैं, वह कुछ कर गुजरना चाहता है,
हर हालात से टकराकर चट्टानों के पाषाण तोड़कर तकदीर का रास्ता निकाल सके वह युवा है जिसमें संभावनाओं की अनन्तता अम्बर सरीखी हो वह युवा है!
यहॉ दिनकर जी की पंक्तियॉ उधार लेना आवश्यक है
क्योकि उससे युवा को समझना सरल हो जायेगा
_पत्थर सी हों मांसपेशियॉ, लोहे से भुजदंड अभय_
_नस नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय_
वास्तव में युवा का उपर्वर्णन कितना शक्तिशाली है कितना मोहक है पर वर्तमान परिवेश में जब उस वर्णन के सापेक्ष वर्तमान युवा को कसौटी पर कसा जाता है तब मुझे यह तुलना विपरीतार्थक प्रतीत होती है।
वर्तमान समय में आपके आसपास जो युवा दिखाई देते हैं क्या वे दिनकर जी की पंक्तियों में वर्णित युवा के समतुल्य हैं ?कोसो दूर तक हमारे वर्तमान युवा इस वर्णित युवा के सापेक्ष नही है।
हमारे अधिकांश युवा तो निस्तेज होते जा रहे हैं कारण वही रोजगार की चिंता, अव्यवहारिक शिक्षा व्यवस्था की आंच पर पके भर्ती की देरी और भर्ती घोटालों से टूटे हुये से लगते हैं हमारे युवा!
पूरा जीवन नौकरी के लिये किताबें रटते रटते उनके मौलिक चिंतन की क्षमता जीवाश्म हो चुकी होती है! बढ़ती जनसंख्या की सुनामी के थपेड़े और नौकरियों की न्यूनता उनके लिये भयावह स्थिति पैदा कर रही हैं!
हॉ कुछ हैं जो इन परिस्थियों में भी अपना रास्ता पा लेते हैं तो समाज और व्यवस्था उन्हे अन्य के लिये ग्लो साइन बोर्ड की तरह उपयोग करने लगता है
वे चंद युवा व्यवस्था की अव्यवस्था को ढंकने का काम करते हैं पर अधिकांश उस अंधेरे में खोये रहते हैं जहॉ सुबह से शाम बस जीविका ही जीविका की खोज है, जीवन है ही नहीं।
हमारा युवा तभी राष्ट्र को विश्व को दिशा दे सकेगा जब वह जीविका से आगे जीवन जियेगा! जब युवा मौलिक चिंतन को विकसित करने की शिक्षा ग्रहण करेगा वरना इस सवा सौ करोड़ में पैतालिस प्रतिशत युवा आबादी में कुछ तो निकल ही आयेंगे ग्लो साइन बोर्ड के वास्ते पर वे राष्ट्र को बहुत नही दे सकेंगे!
राष्ट्र में जब पैतालीस पचास करोड़ युवा शक्ति मौलिक चिंतन और जीविका से आगे जीवन जीना सिखेगा तो राष्ट्र समृद्ध होगा!
पर किसको पड़ी है यहॉ इस देश में यह करने की जनता की भीड़ है जो खुद चल रही है सबको लग रहा है कि देश चल रहा है! मान भी लें कि युवा और देश चल रहा है तो
क्या युवा का केवल चलना पर्याप्त है नहीं युवा तो धावक होना चाहिये जिसे रास्ता दे दो बस दौड़ पड़ेगा और जब पचास करोड़ युवा दौड़ेगा तब देश दौड़ पड़ेगा!
पर इस लोकतन्त्र के मसीहाओं नें तो युवा को आउटसोर्सिंग, संविदा, प्राइवेट आदि में उलझा कर समाप्त कर दिया है और सबसे हास्यास्पद तो तब लगता है
जब किसी राजनैतिक दल का पचास साला अधेड़ स्वयं को युवा उद्घोषित करते हुये युवा पर भाषण झाड़ता है
लोकतन्त्र के मसीहाओं को जाग जाना चाहिये केवल सत्ता और भाषण से ऊपर उठकर देश की युवा ऊर्जा का सदुपयोग करने के बारे में निष्पक्षता से कार्य करना चाहिये पर शायद ही ऐसा हो….
हमारे लोकतन्त्र के मसीहा तो दिनकर जी की निम्न पंक्तियों को ही चरितार्थ कर रहे हैं
_रण केवल इसलिये कि राजे और सुखी हों, मानीं हों_
_और प्रजायें मिलें उन्हें वे अधिक अभिमानीं हों_
_रण केवल इसलिये कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें_
_बढ़े राज्य की सीमा जिससे अधिक जनों को लूट सकें_
_रण केवल इसलिये कि सत्ता बढ़े, न पत्ता डोले_
_भूपों के विपरीत न कोई कहीं कुछ भी बोले_
_ज्यों ज्यों मिली विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है_
_और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है_
यहॉ पंक्तियॉ कितनी प्रासंगिक है यह समझने के लिये याददाश्त पर थोड़ा सा जोर देना पड़ेगा अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के सचिवालय में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पदों पर नियुक्ति हेतु पीएचडी धारकों तक नें आवेदन किया था जबकि वांछित शैक्षणिक योग्यता मात्र हाईस्कूल की थी, कुछ हजार नियुक्तियों हेतु दस लाख से अधिक आवेदन प्राप्त होने की खबर मीडिया चटखारे लेकर बेचता है,
इंजीनियर, डॉक्टर, एमबीए सड़को पर बेरोजगार टहलते कहीं भी पाये जा सकते हैं! क्या है यह? मेरे विचार में यह इस देश की व्यवस्था की बहुत बड़ी विफलता है बड़ी बड़ी फीस लेकर घटिया शिक्षा देने वाले संस्थान पूरे देश में वायरस की तरह फैले हैं और हमारे शिक्षार्थियों को पीड़ित कर रहे हैं!
पर पूरे देश के समग्र राजनैतिक दलों के लिये यह कोई विषय ही नही है जिस पर वे बात भी कर सकें! देश की ऊर्जा का स्रोत खोखला हो रहा है पर लोकतन्त्र के वोटबैंक के मुद्दों पर यह विषय हाशिये से बाहर निकल ही नही रहा है!
सरकार दर सरकार बदल रही है पार्टियों का उदय हो रहा है अरबों खरबों के घोटाले हो रहे हैं, योजनायें बन रही हैं पर मूल तस्वीर जस की तस है! युवा इस देश के लिये अनुत्तरित प्रश्न हो चुका है उसका मसला कोई सुलझाना ही नही चाहता क्योकि यही तो है जो भीड़ बनाते हैं सस्ती दरों पर अपनी युवावस्था की ऊर्जा जलाकर कॉर्पोरेट्स को चमकाते हैं, राजनैतिक दलों के लिये गाहे बगाहे हर काम कर सकते हैं, इन्हे ही तो हर काम के लिये उकसाकर अपना हित साधा जा सकता है, ये ही तो हैं
जो कुछ पदों के लिये लाखों फॉर्म भर कर सरकार को राजस्व देकर चुपचाप रिजल्ट का इंतजार करते हैं, ये युवा अब बहुत सहनशील हो चुका है, इसकी ऊर्जा धक्के खाने में खर्च हो चुकी है, ये बस अब किसी तरह जीवन काटना सीख चुका है और बन गया है एक अच्छा वोटबैंक जिसके कान केवल वही सुनते हैं जो सत्ता सुनाती है,
जिसके हाथ कम से कम पारिश्रमिक को भी नहीं छोड़ना चाहते, जिसका दिमाग केवल रटने और रटने में लगा रहता है, जिसके पैर केवल मालिक तलाश रहे हैं जिसकी नौकरी की जा सके!
देश के लोकतन्त्र के मसीहाओं को समझना होगा कि जिस दिन युवा अपनी ऊर्जा को दर दर भटकने से मोड़कर अधिकारों की लड़ाई की तरफ मोड़ देगा यह निश्चित है कि
तब सिंहासन डोल उठेंगे समय रहते नीतियॉ परिवर्तित कर युवा को उसका हक दे देने में ही भलाई होगी अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब युवा अपने उत्तर स्वयं तलाशने लगेगा और तब व्यवस्था अनुत्तरित होगी……..
(अनुराधा सिंह)
बहराइच
उत्तर प्रदेश