घूँघट की आड़ में…..बुर्क़ा! ✍️पंकज प्रियम
इससे स्पष्ट है कि उन दिनों वधुओं द्वारा पर्दा धारण नहीं किया जाता था, बल्कि वे सभी के समक्ष खुले सिर से ही आती थीं। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहले मुगलों के भारत में आक्रमण के समय से होता हुआ दिखाई देता है। आज में उन्हीं इलाकों में यह प्रथा है जहाँ सर्वाधिक आक्रमण हुए।
सीता हो या मंदोदरी, कुंती हो या दौपदी ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ काल में स्त्रियां किसी भी स्थान पर पर्दा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थीं। अजंता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की जीवन शैली के संबंध में कई नियम बनाए हुए हैं, परंतु कहीं भी यह नहीं कहा है कि स्त्रियों को पर्दे में रहना चाहिए।
ज्यादातर संस्कृत नाटकों में भी पर्दे का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि 10वीं शताब्दी के प्रारंभ काल के समय तक भी भारतीय राज परिवारों की स्त्रियां बिना पर्दे के सभा में तथा घर से बाहर भ्रमण करती थीं, यह वर्णन स्वयं एक अरब यात्री अबू जैद ने अपने लेखन के जरिए किया है। स्पष्ट है कि भारत में प्राचीन समय में कोई पर्दाप्रथा जैसी बिमार रूढ़ी प्रचलन में नहीं थी।
आतंकी खतरा के मद्देनजर फ्रांस, अमेरिका, श्रीलंका, चीन जैसे मुल्कों में बुरका समेत कई चीजों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है तो भारत में भी शिवसेना ने बुर्के पर प्रतिबंध की मांग कर दी है। हालांकि इसे सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि हर बुर्के के पीछे बम नहीं हो सकता लेकिन हालिया घटनाओं ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। माना कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता लेकिन हर आतंकी किसी खास धर्म का ही क्यूँ निकलता है? अगर आतंक का धर्म नहीं होता तो फिर हिन्दू आतंक या भगवा आतंक का प्रचार क्यूँ किया गया?
न्यूजीलैंड की घटना में एक ईसाई ने मुस्लिमों को निशाना बनाया उसका न्यूजीलैंड सहित पूरे विश्व में निंदा हुई। भारत में भी लोग सड़कों पर उतर आए लेकिन अभी श्रीलंका में ईसाई समुदाय को निशाना बनाकर इस्लामी आतंकियों ने 360 से अधिक निर्दोष मासूमों की निर्मम हत्या कर दी तो सभी की जुबान पर ताला क्यूँ लटक गया? आतंकवाद पे यह दोगलापन क्यूँ?
आज जब भारत की सफल कूटनीति के कारण मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकी घोषित कर दिया गया तो इसको लेकर गन्दी सियासत शुरू हो गयी। लोग 1999 की घटना को याद करने लगे कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने इसी आतंकी को रिहा कर दिया था। लेकिन तब की घटना पर विपक्ष,मीडिया और तमाम बुद्धिजीवी की भूमिका पर कोई सवाल नहीं खड़े करता। जब प्लेन हाइजेक हुआ तो उसमें सवार यात्रियों की सकुशल वापसी को लेकर देशभर में लोग सड़कों पर उतर आए। सोनिया गाँधी समेत तमाम विपक्षी नेता धरने पर बैठ गए और सरकार पर दबाव बनाने लगे। मीडिया और बुद्धिजीवियों की बड़ी जमात भी आतंकियों की बात मानने का दबाव बढ़ाने लगे। तब जाकर सरकार ने यह निर्णय लिया।
क्या एक आतंकी के बदले सैकडों जान की कुर्बानी दी देते? कोई भी सरकार होती तो शायद यही करती। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी तो हमारा अंधा कानून और लचर संविधान है जो आतंकियों को पकड़ कर भी उसे वर्षों तक जेल में रखने को मजबूर करती है।
अगर गिरफ्तारी के साथ ही मसूद को मार दिया जाता तो यह नौबत ही नहीं आती। याद कीजिये आतंकी अफ़ज़ल गुरु के लिए कुछ लोगों ने किस तरह आधी रात को अदालत खुलवा दिया। इससे शर्मनाक क्या हो सकती है कि जहां एक व्यक्ति को न्याय के लिए कोर्ट का चक्कर लगाते उम्र गुजर जाती है लेकिन आतंकी के लिए बड़े बड़े वकील आधी रात को कोर्ट खुलवा देते हैं। यही हमारी कमजोरी है। आस्तीनों में इतने साँप फैन फैलाकर बैठे हैं कि आतंकियों को उनकी सह मिल जाती है। देश में गद्दारों के ही कारण पड़ोसी दुश्मन को ताकत मिलती है।
अब जरूरत है कि ऐसे लोगों को चिन्हित कर खत्म करने की और आतंकवाद के खिलाफ कठोर कदम उठाने की ताकि कोई भारत की ओर आँख उठाकर देखने की जुर्रत न करे।