व्यंग्य- मैं वर्षों से यह भ्रम पाले हुए था कि वे भी हाड़-मांस के एक इंसान हैं, बेहद शरीफ़, ईमानदार और इज़्ज़तदार।उनकी सारी हरकतें इंसानों जैसी ही थीं और उनका स्वभाव मनुष्य के स्वाभाव जैसा ही प्रतीत होता था। यदि इंसान के भीतर शैतान हो तो वह देर-सवेर बाहर निकल ही आता है और ताल ठोंककर कहता है-“भाइयो, धोखा न खाना। मुझ जैसे शैतान को इस इंसान ने अपने शरीर में कमरा किराये पर दे रखा है। इसके भोले-भाले चेहरे को देखकर कहीं मूर्ख न बन जाना। मैं ही हूँ इसका असली चेहरा।”
हमारी प्रतीक्षा के बावजूद वर्षों जब उनके भीतर से शैतान जैसी कोई नस्ल प्रकट नहीं हुई तो मुझे विश्वास हो गया कि वे वास्तव में एक अच्छे इंसान हैं। अभी उनके बारे में बने मेरे विचारों को ज्यादा समय नहीं हुआ था कि उनके बारे में मेरा भ्रम दूर हो गया। मुझे उनकी असलियत का पता चल ही गया। मैं उन्हें अच्छा आदमी समझे बैठा था। पर अपने भीतर वे एक फ़ेथफुल नस्ल का इंसान छिपाए बैठे थे।
बात बहुत ही मामूली सी थी। उनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा को देखते हुए मैंने तो सिर्फ़ इतना ही कहा था कि किशोर जी, आप बहुत फ़ेथफुल हैं। वैसे मैं हिंदी का प्रबल समर्थक हूँ। मुझे एक ऐसे हिंदी अधिकारी का बहुत स्नेह-सामीप्य भी मिला है, जिन्हें देखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हिंदी अधिकारी कैसा ‘नहीं’ होना चाहिए। हिंदी से इतना नज़दीकी रिश्ता होने के कारण मैं किशोर जी के लिए ‘विश्वासपात्र’, ‘विश्वसनीय’ या ‘विश्वासयोग्य’, इसी तरह का कोई शब्द प्रयुक्त कर सकता था। पर वर्षों से अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हुए यह अनुभव गहरा हुआ है कि यदि हिंदी के शब्द की बजाय उसके स्थान पर उसका समानार्थी अंग्रेज़ी शब्द ठोंक दिया जाए तो बात में वज़न बढ़ जाता है।
उदाहरण के तौर पर शहद या मधु को ‘हनी’ कह दो तो शब्द सरस हो उठता है। ‘ऐ, मधु !’ और ‘हाय! हनी !’ में अंतर स्वतः स्पष्ट है। किसी को अभागा न कहकर यदि ‘मिज़रेबल’ कह दो, तो अभागे का वज़न बढ़ जाता है। मैदान छोड़कर भागने को यदि ‘रिट्रीट’ कह दो, तो लगता है जैसे सेना बहादुरी के साथ पीछे हट रही है। अंग्रेज़ी के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए ही मैंने किशोर जी की शान में अपने हिसाब से बहुत वज़नदार बात कही थी, एकदम सच्चे मन से- “किशोर जी, आप बहुत फ़ेथफुल हैं।” मुझे आशा थी कि उन जैसा विनयशील व्यक्ति विनम्रता से दोहरा हो जायेगा। पहले थोड़ा झिझकेगा और संकोचपूर्वक शर्माकर कहेगा- “मैं इतनी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ, भाई। यह तो आपका बड़प्पन है जो आप मुझे फ़ेथफुल कहकर इतना सम्मान दे रहे हैं।”
अपनी प्रशंसा सुनकर कुछ इसी तरह की नम्रता प्रदर्शित करने का रिवाज़ है अपने यहाँ। एक सज्जन को मैं जानता हूँ जो बहुत सुशील और लज्जावान हैं। यदि उनसे कहो कि आप राजा हरिश्चंद्र की तरह सत्यवादी हैं, तो कहेंगे- “यह तो आपका बड़प्पन है जी, वर्ना कहाँ मैं और कहाँ राजा हरिश्चंद्र !” किसी ने उनसे कहा- “आप तो इन दिनों कर्ण की तरह दानी हो रहे हैं।” वे हाथ जोड़ते हुए बोले- “मैं इस सम्मान के लायक कहाँ हूँ जी ! यह तो आपका बड़प्पन है जी…!” एक दिन दफ्तर में उनका बॉस नाराज होकर कह बैठा- “आप एकदम गधे हैं, समझे?” वे विनम्र होकर बोले- “यह तो आपका बड़प्पन है, सर ! वर्ना कहाँ गधा और कहाँ मैं !”
मैं भी किशोर जी से इसी तरह की विनम्रता की आशा लगाए था , पर मुझे आश्चर्यचकित करते हुए किशोर जी उखड़कर बोले- “मुझे फ़ेथफुल कहते हुए आपको शर्म आनी चाहिए ! आपको तमीज़ ही नहीं कि किससे कैसे बातें की जाती हैं !” मैं हतप्रभ था। मैंने तो हवन-कुंड की पवित्र अग्नि में प्रशंसा की समिधा डाली थी पर आग शांत नहीं हुई, बल्कि और भड़क उठी थी। पहली बार ‘होम करते हुए हाथ जलते हैं’ मुहावरा सार्थक लगा। मैंने खुद को बहुत विनम्र बनाते हुए कहा- “यह आपका बड़प्पन है, किशोर जी जो आप मुझे बद्तमीज़ समझ रहे हैं। पर मैंने आपको ऐसा क्या कह दिया कि आप इतनी शालीनता से भड़क रहे हैं ? मैंने आपको फ़ेथफुल ही तो कहा है।”
वे दुगुने वेग से भड़क उठे- “फिर मुझे फ़ेथफुल कहा ? अरे फ़ेथफुल होंगे आप…आपके बाप-दादा…आपकी सात पीढ़ियां ! समझे ?” अपने भीतर की सारी विनम्रता को निचोड़ते हुए मैंने कहा- “आज आपको हो क्या गया है, किशोर जी ? मैंने आपको फ़ेथफुल कहा है, कोई गाली तो नहीं दी ? मैंने तो आपका सम्मान ही किया है।” वे क्रोधाग्नि में जलते हुए बोले- “सम्मान किया है कि अपमान किया है ? मैं यह हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता ! ज़रूरत पड़ी तो मैं आप पर मानहानि का दावा करूँगा !” उनकी बातें सुनकर मैं घबराया। किसी को फ़ेथफुल कहने की इतनी बड़ी सज़ा कि वह मानहानि का दावा करने पर उतर आये ? ये सारी बातें मैंने अपने सबसे जिगरी पागल दोस्त को बताई तो वह बोला- “भाई, तू अंग्रेज़ी से मात खा गया, यार ! तुझे इतना भी नहीं पता कि ‘फ़ेथफुल’ किस नस्ल को कहा जाता है। यार, तू बहुत कन्फ्यूज़्ड है। या तो तू किसी को इंसान समझ ले या फ़ेथफुल। ये दोनों अलग-अलग नस्लें हैं, मेरे भाई ! यदि तू इन दो नस्लों को आपस में मिलाएगा तो गड़बड़ होगी ही।”
बात मेरी समझ में आ गई थी। मैंने एक इंसान को फ़ेथफुल कहा था। बुरा मानने वाली बात तो थी ही। पहली बार दो हिंदी भाषी एक साथ अंग्रेजी से मात खा गए। मैं और किशोर जी एक साथ छले गए थे। मैं अपनी प्रशंसा में वज़न डालने के लिए अंग्रेज़ी का पत्थर बांध रहा था और किशोर जी पूरी ईमानदारी से ‘फ़ेथफुल’ शब्द के अर्थ को शब्द से नहीं बल्कि नस्ल से जोड़ रहे थे। शायद किशोर जी ने ठीक ही कहा कि उन्हें फ़ेथफुल कहकर मैंने उनका अपमान किया है। बल्कि मैं तो यह मानने को भी तैयार हूँ कि मैंने उस नस्ल का भी अपमान किया है जो वास्तव में फ़ेथफुल होती है।
यह मेरी ही नासमझी है। इंसानों को पहचानने में मुझसे अक्सर चूक हो जाया करती है। मैं एक साहित्यिक गोष्ठी में प्रायः जाया करता हूँ। वहां एक बड़ी नस्ल के साहित्यकार आया करते हैं जो सभी छोटे साहित्यकारों को अपना फ़ेथफुल और अपने आप को साहित्य का फ़ेथफुल समझते हैं। एक दिन एक लेखक ने व्यंग्य पढ़ा, जिसमें यह कल्पना की गई थी कि चुनाव में किसी प्रत्याशी का चुनाव-चिन्ह यदि ‘सूअर’ हो तो वह सबसे सटीक होगा। उस दिन ‘सूअर’ उस गोष्ठी का मुद्दा बन गया। सभी के गले में ‘सूअर’ अटक गया। किसी ने कहा- “साहित्य में सूअर शब्द का प्रयोग वीभत्स-रस को जन्म देता है।” कोई बोला- “साहित्य में सूअर शब्द का प्रयोग कर हमें साहित्य को कलंकित नहीं करना चाहिए।” एक छोटे साहित्यकार ने कहा- “हमें सूअरों से परहेज करना चाहिए क्योंकि सूअरों ने साहित्य की गरिमा को बहुत क्षति पहुंचाई है।” मझोले क़द के साहित्यकार ने जोश में आकर कहा- “हम सूअरों को साहित्य में गंदगी नहीं फैलाने देंगे !”
एक महिला साहित्यकार को इस शब्द की वज़ह से बाक़ायदा उबकाई आने लगी और वे बाथरूम की ओर बढ़ गईं ताकि वहां अपने गले में फंसे सूअर को उगल सकें। बड़े साहित्यकार ने बड़ी गंभीरता से कहा- “साहित्य में सूअरों के प्रवेश से हमें नहीं घबराना चाहिए। पहले से ही ढेर सारे सूअर साहित्य में मौज़ूद हैं जो साहित्य का सत्यानाश कर रहे हैं। पहले हमें उनसे निपटना है ताकि साहित्य का शुद्धीकरण किया जा सके।” उनका इशारा अपने प्रतिद्वंदियों की ओर था। प्रतिद्वंदियों के लिए ‘सूअर’ शब्द का विशेषण उन्हें शाश्वत लगा। हाँ, साहित्य में ‘सूअर’ शब्द के प्रयोग पर उन्हें भी ऐतराज था। बहरहाल उस गोष्ठी में मुझे सभी साहित्य के प्रति कम और ‘सूअर’ के प्रति ज़्यादा फ़ेथफुल लगे।
आज के युग में फ़ेथफुल इंसान बनकर रहने के अपने कुछ ख़ास फ़ायदे हैं, इसलिए हर आम इंसान फ़ेथफुल बनना चाहता है। हालाँकि इस प्रक्रिया में बहुत से समझौते करने पड़ते हैं। आख़िर इंसान से फ़ेथफुल नस्ल का इंसान बनना आसान तो नहीं है ? इस सभ्य समाज में मैं कई लोगों का ‘आम आदमी’ से ‘फ़ेथफुल आदमी’ तक का सफ़र देख चुका हूँ। उनमें से एक शख़्स मुझे अचानक याद आ रहे हैं। वे कलियुगी ईमानदार थे। कलियुगी ईमानदार बेईमानी भी पूरी ईमानदारी से करता है। वे हमेशा नीति और ज्ञान की बातें करते थे और हवा में सरेआम अपनी भरी-पूरी नाक लहराते रहते थे। अपने हर दफ़्तरी ऑफ़िशियल पात्र में वे नीचे लिखवाते- ‘योर्स ट्रियूली’, और अपने दस्तख़त करते।
अचानक उन्हें लगा कि उनके दफ़्तर की शांति भंग होने लगी है। कारण था कि दफ़्तर रुपी अशोकवाटिका में सप्लायर और ठेकेदार रुपी वानर उत्पात मचाने लगे थे। वे कलियुगी ईमानदार थे, इसलिए ऊपर से तो वे इस हालात पर अफ़सोस प्रकट करते पर भीतर ही भीतर चाहते कि कोई सप्लायर उन्हें भी आतंकित करे, कोई ठेकेदार उनकी भी शांति भंग करे। साहबों और ठेकेदारों के प्रणय-प्रसंग, प्रेमी-प्रेमिका के प्रणय-प्रसंगों जैसे ही होते हैं। ठेकेदार पहले अपनी साहब रूपी प्रेयसी को भांपता है और पता लगाता है कि साहब चाट पसंद करते हैं या आइसक्रीम। फिर वह प्रेमी की तरह झिझकते हुए साहब को कोई उनकी मनपसंद चीज़ पेश करता है। ठेकेदार डरता भी रहता है कि क्या पता साहब रूपी प्रेमिका करैक्टर वाली हो और बुरा मान जाए।
यदि प्रेमिका आइसक्रीम खा लेती है तो सधा हुआ प्रेमी समझ जाता है कि मामला जम गया। अनुभवी ठेकेदारों ने भी उन साहब को ताड़ लिया कि साहब काम का आदमी है। वे धीरे-धीरे साहब की शांति को भंग करने लगे, कभी साहब के बच्चों के लिए मिठाई देने के बहाने तो कभी साहब और मेमसाहब को कोई उपहार देने के बहाने। समझौते शुरू हो गए थे। दिन-प्रतिदिन साहब की नाक थोड़ी-थोड़ी ग़ायब होती जाती थी। आम आदमी अब फ़ेथफुल इंसान बनने की ओर अग्रसर हो गया था। अब साहब ठेकेदारों को लिखे अपने ऑफिसियल पत्रों में अंत में लिखवाने लगे- ‘योर्स सिनसीयरली’। अब उन्हें दस्तख़त करते हुए लगता जैसे वे ठेकेदारों से लिए अहसान रूपी क़र्ज़ की किश्तें चुका रहे हों।
साहब की तर्जनी ठेकेदारों की पकड़ में आई तो उन्होंने हाथ पकड़ना शुरू कर दिया। साहब के नवविवाहित बेटी-दामाद के लिए ठेकेदारों ने उनके हनीमून का ज़िम्मा अपने ऊपर लिया तो साहब जी थोड़ा और ईमानदारी के माया-मोह से मुक्त हो गए। अपनी प्रतिभा के पूर्ण उपयोग के लिए अब साहबजी ठेकेदारों को फ़िक्स्ड रेट पर दफ़्तर के गोपनीय दस्तावेज़ मुहैय्या करवाने लगे। सप्लाई का ठेका हो या निर्माण कार्य का, साहब बड़े काम का आदमी साबित होता है। वह ठेकेदार ‘क’ से पैसे लेकर उसे ठेकेदार ‘ख’ के कोटेशन दिखला देता है। वह सप्लायर को बढ़े हुए रेट पर सस्ता और घटिया माल सप्लाई करने की सुविधा दिलवा सकता है।
कुछ दिनों के बाद साहब की नाक गायब हो गई। सभी को मालूम हो गया था कि उन्होंने अपनी नाक ठेकेदारों के यहाँ रेहन रख दी है। अब वे अपने हर लेटर के अंत में लिखवाने लगे-‘योर्स फ़ेथफुली’। अब वे हस्ताक्षर करते तो उन्हें यह सोचकर बड़ी तसल्ली होती कि अब वे ‘फ़ेथफुल’ नस्ल के हो गए हैं। पहले साहब एक इज़्ज़तदार सामान्य आदमी बनकर दुःखी रहते थे। अब वे ख़ुद को फ़ेथफुल नस्ल से जोड़कर सुखी हो गए थे। अब वे जब कभी भो किसी ठेकेदार के साथ दिखते तो सभी को वह अदृश्य पट्टा नज़र आ जाता जो ठेकेदारों ने उनके गले में डाल रखा था। साहब की पूंछ का न होना उनके हक़ में था, वर्ना ठेकेदारों के लिए कृतज्ञता से हिलती पूँछ सब कुछ बयान कर देती।
गंभीरता से सोचता हूँ कि क्या किशोर जी ने भी कहीं अपनी नाक को रेहन रखा हुआ था ? यदि ऐसा नहीं था तो वे ‘फ़ेथफुल’ कहने पर इतना भड़के क्यों ? इस बात का बुरा मानने की और क्या वज़ह हो सकती है ? मन में उठते विचार आगे सोचने को विवश करते हैं कि यदि आदमी फ़ेथफुल नस्ल को अपना रहा है तो बेचारी फ़ेथफुल नस्ल कहाँ जाए ? ऐसे प्रश्नों का समाधान मेरा पागल दुनियादार दोस्त ही दे सकता है। उससे पूछा तो उसने कहा- “इंसान और फ़ेथफुल नस्ल में बहुत बड़ा फ़र्क़ है, मेरे भाई। फ़ेथफुल नस्ल का प्राणी तो सिर्फ़ एक मालिक के प्रति वफ़ादार रहता है, मेरे दोस्त। वह जिसका हो गया सो हो गया। पर फ़ेथफुल इंसान की वफ़ादारी सीजनल होती है, समय और अवसर सापेक्ष होती है। आज ठेकेदार ‘क’ के लिए उसकी दुम हिल रही है तो कल दुम का हिलना ठेकेदार ‘ख’ को भी समर्पित हो सकता है।”
मैंने दोस्त से पूछा- “तू मुझे कोई कंक्रीट या ठोस उदाहरण देकर क्यों नहीं समझाता ताकि मैं इस भेद को भली-भांति समझ सकूं ?” उसने मुस्कराते हुए कहा- “उदाहरण के लिए तू अपने भीतर झांककर क्यों नहीं देखता ? तू अपने आप को अपने प्रति बड़ा फ़ेथफुल, बड़ा ईमानदार समझता था, पर पिछले महीने जब तेरी पदोन्नति होनी थी, तो तू अचानक कितना फ़ेथफुल हो गया था अपने बॉस के प्रति ? तुझे याद है कि नहीं ? कैसे तेरे मुंह से बॉस के सामने ‘जी सर !’ और ‘यस सर !’ के अलावा और कुछ निकलता ही नहीं था। कितना निरीह हो गया था तू ! यदि तेरा बॉस चाहता तो वह तुझसे अपने घर का झाड़ू-पोंछा भी करवा सकता था। बोल, क्या इसके लिए तू अपने बॉस को ‘न’ कर पाता ? और अब तेरा प्रोमोशन हो गया है तो तू फिर अकड़ गया है। अब तू फिर से अपने प्रति फ़ेथफुल होकर ईमानदारी का ढोंग करने लगा है।”
अब अपने पागल दोस्त की दमदार बातें न मानूं, इतना पागल तो नहीं हूँ मैं।
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___✍️श्रवण कुमार उर्मलिया