अरावली में अवैध खनन जारी –
टीम सच की दस्तक सूत्र-
पर्यावरण को बचाने के लिए अरावली पर्वत शृंखला क्षेत्र में खनन को रोकने में प्रशासनिक मशीनरी की घोर विफलता पर उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी कि पूरा सरकारी तंत्र सड़ चुका है, देश में कानून के शासन के ढहने के खतरे का संकेत है। संविधान सम्मत कानून नियंत्रित व्यवस्था लोकतंत्र की पहली शर्त होती है। मगर जब कार्यपालिका अपने दायित्वों से मुंह मोडऩे लगे और जनसेवक कानून तोडऩे वालों के साथ हाथ मिलाने लगे, तब कानून के राज का क्षय होने लगता है। अरावली क्षेत्र में पूरी रोक के बावजूद अवैध खनन का बड़ा धंधा इसलिए रुक नहीं पा रहा है, क्योंकि जैसा कि इस न्यायालय ने कहा है, जो लोग अवैध खनन में लिप्त हैं, अधिकारियों के साथ उनका चोली-दामन का साथ है। इसीलिए उच्चतम न्यायालय के बार-बार आदेश दिए जाने के बावजूद अरावली क्षेत्र में अवैध खनन जारी है। अरावली में खनन रोकना सिर्फ कानून का नहीं, बल्कि उस पर्यावरण को बचाने का मुद्दा है, जिस पर मानव जीवन का भविष्य टिका है। अरावली पर्वत शृंखला युगों-युगों से उत्तर भारत के इस भूभाग के लिए जीवनदायिनी बनी रही है मगर अब पैसे का लालच प्रकृति को खत्म करने पर आमादा है। ये हालात लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए इसलिए भी खतरनाक हैं कि इनमें कानून की परवाह न करने का दुस्साहस झलकता है। न्यायालय के आदेशों की भी परवाह न करके कार्यपालिका अपने चेहरे को मलिन कर रही है।
यह किसी से छुपा नहीं है कि अरावली क्षेत्र में अवैध खनन में ठेकेदारों, राजनेताओं और नौकरशाहों का आपसी मेलजोल बड़ी भूमिका अदा करता है। राजनेता किसी भी रंग के हों, उन्हें धन-बल की मदद इस इलाके के खनन माफिया समूहों से ही मिलती है। इसीलिए अदालती आदेशों की भी परवाह न करने का हौसला सामने आता है और हालात बद से बदतर होते चले जाते हैं। सीएजी की रिपोर्ट पर भी कोई हलचल नहीं मचती जो सरकारी फाइलों को उधेड़ कर बताती है कि केवल राजस्थान के इस क्षेत्र के पांच जिलों में पांच साल में 98.87 लाख टन खनिज अवैध रूप से निकाला जा चुका है। यह भी सामने आ चुका है कि 128 में से 31 पहाडिय़ां खनन के चलते पूरी तरह साफ हो गईं। ऐसा होता रहा तो इस इलाके की जमीन में पानी नहीं रहेगा, रेगिस्तान पसरेगा और जीवन खतरे में पड़ेगा। अफसोस की बात है कि यह गंभीर मुद्दा कभी राजनीतिक बहस का हिस्सा नहीं बनता और न कभी चुनावी मुद्दा बनता है क्योंकि सबके निहित स्वार्थ हैं। ये स्वार्थ इतने ताकतवर हैं कि उनमें कानून के राज को धता बताने का अहंकार है। सरकारी अधिकारियों के पास बहानों की कमी नहीं। इस बार उन्होंने उच्चतम अदालत के सामने यह बहाना किया कि चुनावी आचार संहिता के चलते वे कुछ नहीं कर पाए जिसे अदालत ने सिरे से खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट का आदेश कानून होता है। उसकी पालना ही नहीं होगी तो सामान्य कानूनों की कौन परवाह करेगा? कानून की पालना का यह मुद्दा अरावली को बचाने का ही नहीं, बल्कि उन प्रवृत्तियों पर समय रहते काबू पाने का भी है जो कानून की परवाह न करके संविधान सम्मत सुगठित राज्य व्यवस्था में घुन की तरह लगी हुई हैं।