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-आकांक्षा सक्सेना, न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक
गणतंत्र दिवस के पावनदिन पर जय किसान, जय जवान को तिरंगे के डंडे से मारकर दरिंदगी की पटकथा लिखते नज़र आये और लालकिले पर अलगाववाद का चीथड़ा फहराकर, हमारे तिंरगें को शर्मसार कर डाला!!
हर कोई कहता है राष्ट्रहित सर्वोपरि पर यह बात जीवन की रोजमर्रा की आदतों में कितनों ने उतारी? क्या कोई कानून वापसी का मुद्दा हमारे देश के गणतंत्र दिवस महापर्व से ऊपर हो गया? कहां गये वो देशभक्ति के संस्कार जब जय किसान ने जय जवान को अपने अहंकार की तलवारों से घायल कर इस नारे को कलंकित कर दिया और देश का जय जवान इसलिए चुप रहा कि अराजकत तत्वों ने किसान का लिवास पहन रखा था यानि साधू के वेष में डाकू वाली कहावत उस समय सच हो गयी जब दिल्ली के जवानों को इन दरिंदों ने राष्ट्रीय ध्वज के डंडे से पीटा और अपनी पूरी हैवानियत का परिचय दिया। यह बिल्कुल क्षमा के लायक नहीं है।
इनका कार्य देशद्रोह है जिसकी माफी नहीं होनी चाहिए और राष्ट्रद्रोह के दाग टिकैत के घड़ियाली आसुओं से धुलने वाले नहीं हैं। यह आंदोलन शुरूआत में किसानों ने शुरू जरूर किया था पर इसे देश विरोधी तत्वों ने हाईजैक कर लिया जिसे विपक्ष ने पूरी कूलर लगाकर हवा मुहैया करा दी।
यह वह षड्यंत्रकारी नेता हैं जो अपने बल पर पीएममोदी से मुकाबला नहीं कर पाते हैं इसलिए कभी यह एनआरसी की आड़ में मुसलमानों को भड़काते हैं तो कभी किसानों को उकसाते हैंं और जिन नेताओं को मोदी के विकल्प के रूप में जनता ने पूरी तरह से ठुकरा दिया है, वह अराजक तत्वों के साथ तक खड़े हो जाने से परहेज नहीं करते हैं, बल्कि उन्हें उकसाने का भी काम करते हैं ताकि मोदी सरकार की राह में रोड़े खड़े किए जा सकें। यह सिलसिला मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद शुरू हुआ था जो उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद आज तक जारी है।
यह ईर्ष्याालु दिल जले नेता यह नहीं समझते कि देश की जनता मूर्ख नहीं है वह किसान और अराजक तत्वों में अंतर करना बखूबी जानती है। बता दें कि गाजीपुर से लेकर सिंधु बॉर्डर तक चल रहा किसान आंदोलन पूरी तरह से सियासी आंदोलन बन गया था। सब पार्टियों की काली नजर किसान वोट बैंक पर है कि कैसे इसे हासिल करें। इस तथाकथित किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले तमाम स्वयंभू नेताओं को उनके लापरवाह रवैया और वर्दी को अपमानित करने के संगीन जुर्म में कड़ी सजा मिलना चाहिए। इतनी दरिंदगी के बाद अब केन्द्र सरकार इनसे किसी तरह की वार्ता न करे, दूसरे इन स्वयंभू किसान नेताओं का ऐसा पुख़्ता इलाज करे कि भविष्य में कोई और इस तरह की अराजकता और तोड़फोड़ करने का दुस्साहस ना कर सके।
इसके लिए इन दंगाई किसान नेताओं का ‘इलाज’ योगी आदित्यनाथ जी के ‘तरीके’ से ही किया जाना चाहिए जैसा नवंबर-दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून वापसी के नाम पर प्रदेश को दंगे की आग में झोंकने की कोशिश करने वालों का, योगी सरकार द्वारा किया गया था।बहुत जरूरी है कि किसानों की आड़ में नेतागिरी करने वालों को भी बेनकाब करना आवश्यक है, क्योंकि उनमें से ज्यादातर का खेती-किसानी से कोई लेना-देना नहीं। वे या तो आदतन आंदोलनबाज हैं अथवा किसानों के नाम पर अपनी राजनीतिक दुकान चलाने वाले स्वार्थी तत्व हैं।
यह लोग देश में कहीं भी कोई आंदोलन शुरू होता है, उसमें बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तर्ज पर कूद पड़ते हैं। वास्तव में इसी कारण किसान संगठनों की मोदी सरकार से लंबी बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई। क्योंकि विपक्ष शांति सद्भाव और तरक्की नहीं चाहता वह सिर्फ़ किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री की कुर्सी चाहते हैं बाकि देश की शांति से उनका कोई सरोकार नहीं है।शुरूआत से ही खालिस्तान व नक्सलवाद की अवैध संतान मौजूदा किसान आंदोलन प्रारम्भ से ही सरकारी व्ययवस्था की विपरीत धुरी पर खड़ा दिखाई दिया।
यही कारण है कि गणतंत्र दिवस पर जिस तरह शर्मनाक हिंसक प्रदर्शन हुए वह अप्रत्याशित नहीं हैं, पहले दिन से ही कोई भी इंसान इसकी भविष्यवाणी कर सकता था। पूरे आंदोलन में कुछ अप्रत्याशित था तो वह आंदोलनकारियों के इस आश्वासन पर विश्वास कर लेना कि उनकी ट्रैक्टर परेड से तिरंगे का सम्मान ही बढ़ेगा। आंदोलनकारियों की संदिग्ध पृष्ठभूमि से परिचित होने के बावजूद इन पर विश्वास करना पूरे देश को बहुत महंगा पड़ा। आखिर! पुलिस ने यह कैसे मान लिया कि किसानों के रूप में एकत्रित अनियंत्रित भीड़ अपने नेताओं का व राष्ट्रीय पर्व का अनुशासन मानेगी और उनके कानून के अनुसार निर्धारित मार्ग पर ही जुलूस निकालेगी?
विश्वास दिलवाने वाले ये सभी लोग एक ऐसी भीड़ के नेता थे, जिसे उकसाने पर हिंसक होने की आदत तो है, पर विवेक प्रयोग करने की नहीं। न ही उसके नेताओं में इतना नैतिक बल है कि वे प्रदर्शनकारियों को बात मनवा लेते और न ही लोगों में अनुशासन की आदत है। किसानों के 40 से अधिक संगठन इस आंदोलन में शामिल हैं। सबका अलग एजेंडा और अलग राजनीति है और यही कारण है कि उनका किसी एक फैसले पर पहुंच पाना लगभग असंभव है।
निश्चित ही राजधानी दिल्ली में सरकारी या निजी संपत्ति और जवानों को चोटें आयीं हैं। इसकी पूरी भरपाई इन्हीं देश विरोधी तत्वों की कठपुतली किसान नेताओं और अराजकता फैलाने वालों की निजी संपत्ति की कुर्की करके वसूल की जानी चाहिए। इन उपद्रवियों के खिलाफ जो भी कार्रवाई हो, उसे फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाना चाहिए ताकि देश के स्वाभिमान से खिलवाड़ करने वाले यह भ्रम ना पाल पाएं कि उनका कुछ नहीं हो सकता। यह अच्छा है कि दिल्ली पुलिस ने दंगाइयों के खिलाफ एफआईआर लिख कर कुछ गिरफ्तारियां भी कर ली हैं, लेकिन दंगाइयों के बीच बड़ा संदेश तब दृष्टिगोचर होगा, जब किसान आंदोलन की आड़ में अपनी दुकान चला रहे कथित गैर-जिम्मेदार किसान नेताओं को जेल में डाला जाये। सूत्रों के अनुसार दिल्ली पुलिस, राकेश टिकैत जैसे किसान नेताओं जिन्होंने दंगाइयों को भड़काने में अहम भूमिका निभाई थी, की एफआईआर यूपी पुलिस को सौंप दें बाद में योगी सरकार को टिकैत के खिलाफ क्या करना है, वह स्वत: संज्ञान लेगें। मालूम हो कि इस बदनाम आंदोलन के अराजक तत्वों का सरगना दीप सिद्धू लाल किले की शर्मनाक घटना के लिए जिम्मेदार है।
सवाल है कि क्या केवल इसी के साथियों ने दिल्ली में दर्जनों जगह उपद्रव किया? क्या आतंक का पर्याय बन गए उन तमाम ट्रैक्टरों पर दीप सिद्धू के ही दंगाई सवार थे, जो दिल्ली को जगह-जगह रौंद रहे थे? आखिर जब ऐसा हो रहा था, तब किसान नेताओं के कथित कार्यकर्ता क्या कर रहे थे? ऐसे सवालों से किसान नेता इसलिए नहीं बच सकते, क्योंकि वे अपने समर्थकों को इसके लिए खुद ही उकसा रहे थे कि दिल्ली पुलिस की ओर से तय शर्तों को भी कुचल दिया जाये ।
यह भी जगजाहिर है कि वे इस बात से लगातार आंखें मूंदे रहे कि उनके आंदोलन में खालिस्तानी तत्व सक्रिय होते जा रहे हैं। यदि इन नेताओं में थोड़ी भी शर्म होती तो वे तुरंत अपना आंदोलन खत्म करने की घोषणा करते, लेकिन ज्यादातर ऐसा नहीं कर रहेे। साफ है कि उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं। वे इसके बावजूद हठधर्मिता दिखा रहे हैं कि दो किसान संगठनों ने गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा से शर्मिंदा होकर खुद को इस आंदोलन से अलग कर लिया है।
स्पष्ट है कि जो अभी भी आंदोलन जारी रखने पर आमादा हैं, वे न तो किसानों के नेता हैं और न उन्हें देश के मान-सम्मान की कोई चिंता है। गौरतलब है कि कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेेंद्र सिंह तोमर प्रदर्शनकारी किसानों के साथ 11वें दौर की बात असफल होने के बाद आंदोलन की हठधर्मिता पर जो प्रश्न उठाया पर उपद्रवियों के समझ नहीं आया। यह तो हद ही हो गई कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर लाल किले पर पहुंच कर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे झंडे के स्थान पर अलगाववाद का प्रतीकात्मक चीथड़ा लाल किले पर फहरा कर अपनी गद्दारी का बखूबी परिचय दे दिया ।
केवल इतना ही नहीं, बहुत से कथित किसान दंगाई का रूप धारण कर जवानों पर लाठियों, कृपानों, तलवारों भालों, ट्रैक्टर की मार से टूट पड़े। दिल्ली पुलिस के दावों के अनुसार इन कथित किसानों ने 394 जवानों को घायल कर दिया। यहां तक कि इन गुंडों ने महिला पुलिस कर्मियों को भी नहीं छोड़ा और उनको घेर कर अपनी मर्दानगी का प्रदर्शन करते रहे। इतना सब हो गया पर कहींं मोमबत्ती, पोस्टर, अवार्ड वापसी गैंग व मानवाधिकार वाले कहीं नजर नहीं आये। क्यों भई! क्या पुलिसकर्मियों और फौजियों के मानवाधिकार नहीं होते? यह गलेे के पानी उस समय ऊपर चला गया जब दिल्ली में सरेआम किसानों के नाम पर लाल किले में घुसे खालिस्तानी आतंकी दंगे तोड़फोड़ करते नजर आए, अब किसान संगठनों के सामने प्रश्न पैदा हो गया है कि वे देेश की जनता को क्या जवाब देंगे ?इस बदनाम किसान आंदोलन ने देश के अन्नदाता किसान की प्रतिष्ठा को पूरी तरह धूमिल किया है।
जरा सोचिए! जो गणतंत्र दिवस इस मौके पर देश की महान शख्सियतों को सम्मानित करता है उसी गणतंत्र दिवस पर उपद्रवियों ने किसानों के लिवास में दरिंदगी की कभी न भूलने वाली पटकथा लिख दी। अब तथाकथित किसान नेताओं को इस घटनाक्रम पर मनन और चिंतन करना चाहिए और देश के भूमिपुत्रों को यह भी सोचना होगा यूं ही विपक्ष व अराजकतावादियों की कठपुतलियों को विवेकशून्य होकर अपना नेता स्वीकार नहीं करना चाहिए जो देश की अस्मिता पर ही खतरा और बदनुमा दाग बन जाये।
सत्यमेव जयते 🙏💐