सार्वभौम घोषणा पत्र की अमृत बेला में राष्ट्रपति की मानवाधिकारों की गुहार
_प्रो. कन्हैया त्रिपाठी
लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं। आप केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में चेयर प्रोफेसर, अहिंसा आयोग व अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं।
एशिया प्रशांत मानव अधिकार मंच के दिल्ली सम्मेलन में भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू मुख्य अतिथि थीं. वह सरल महिला हैं और वह भारत के अमृतकाल में महिलाओं के साथ एक ऐसे समुदाय को भी रीप्रेजेंट करती हैं जो अब सशक्त है. वह खुद इसकी मिसाल हैं. यह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणा पत्र की 75वीं वर्षगाँठ का भी क्षण है. भारत की राष्ट्राध्यक्ष इस मौके पर आकर यह जतला दीं कि भारतीय लोकतंत्र ने वास्तव में सार्वभौम घोषणा पत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था का संविधान के आलोक में सम्मान किया है और हमें ऐसे गणराज्य का राष्ट्राध्यक्ष होने का सौभाग्य मिला है.
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राष्ट्रपति ने मानवाधिकारवादियों की इस दिल्ली महासभा में जो बातें की वह नैरन्तर्य की छटपटाहट वाले समाज को और दिशा देने वाली हैं. राष्ट्रपति ने कहा कि जब मानव अधिकारों की बात होती है, तो मुझे ऐसी अवधारणा के बारे में बात करने में प्रेरणा मिलती है जो मेरे सार्वजनिक जीवन में हमेशा शामिल है, गतिशील है, और मेरे दिल के काफी करीब रही है. जैसे-जैसे मानव जाति नैतिक और आध्यात्मिक रूप से तरक्की करती है, मानव अधिकार की परिभाषा और विकसित हो जाती है. मुझे इस बात से बड़ी संतुष्टि मिलती है कि यह अवधारणा भारतीय सभ्यता में गहराई से जुड़ी है. दुनिया ने इसकी पहली झलक तब देखी, जब लगातार दो विश्व युद्धों के कारण हुए भारी विनाश के बाद, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा की शुरुआत में ‘सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुए हैं और समान हैं’ का सूत्रपात किया. राष्ट्रपति ने भारत के प्रतिनिधित्व को स्मरण किया हंसाबेन मेहता को स्मरण किया जिनकी मानवाधिकारों की अवधारणा ‘सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुए हैं और समान हैं’ की समेकित परिवर्तन की अधिकारों वाली अवधारणा थी.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भारतीय सनातन सभ्यता को जानती हैं. वह इसके उत्कृष्टता को उसी आलोक से प्रतिबिंबित समाज-संस्कृति और विकृति को समझने की कोशिश करती भी हैं. इसीलिए उन्होंने लगभग 26 देशों वाले समूह एशिया पेसिफिक मंच पर यह कहा भी कि मनुष्य अच्छा निर्माता है और विध्वंसक भी है. वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, यह ग्रह छठे विलुप्त होने के चरण में प्रवेश कर चुका है जहां मानव द्वारा किया जा रहा विनाश नहीं रोका गया तो न केवल मानव जाति बल्कि पृथ्वी पर अन्य जीव भी नष्ट हो जाएंगे. इस संदर्भ में, मैं आपसे आग्रह करती हूँ कि मानव अधिकारों के मुद्दे को अलग मानकर नहीं चले और प्रकृति की देखभाल पर भी उतना ही ध्यान दें, जो मानव द्वारा अविवेकपूर्ण उपयोग से बुरी तरह आहत है. भारत का मानना है कि ब्रह्मांड का प्रत्येक कण दिव्यता से भरा है. इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, आइए, हम प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए अपने प्रेम को फिर से जगाएं.
दरअसल, विनाश के मोहने पर बैठे एशिया के विभिन्न देश प्रकृति की अविरल ऊर्जा का ह्रास होते देखकर भी खुद के आनंद में खोये हुए हैं और भौतिकवादी सोच से अपनी प्रकृति के साथ कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे हमारी पृथ्वी की शांति खोने जा रही है. हमारा आकाश और हमारे जलवायु पर भरी संकट है. हमारे समुद्र में हलचल जो थी, उसके भी स्वस्थ्य ख़राब हो रहे हैं.
राष्ट्रपति निश्चय ही अन्याय व विध्वंस की रह पर चलने वाले समाज को खींचकर एक ऐसे पथ पर लाने की गुहार लगायी हैं जिससे हमारी सभ्यता बाख जाए और मानवाधिकारों की सबको सामान रूप से प्राप्ति हो. उन्होंने चौकाने वाले कुछ तथ्य रखे जो दुनिया के सभी मानवाधिकार के पैरोकार कदाचित नहीं जानते. वह बात अच्छी भी थी और दिलचस्प भी.
प्रत्यक्ष रूप से मुझे उनको सुनकर यह लगा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू केवल शब्दों को उद्धृत नहीं करतीं बल्कि वह समाज को आईना भी दिखाती हैं. वह समाज को सीखने और समझने के लिए उद्वेलित भी करती हैं. उन्हीं के शब्दों में, ‘मैं आपका ध्यान लोकतांत्रिक मूल्यों और व्यक्तिगत अधिकारों के संबंध में भारत के ऐतिहासिक अनुभव की ओर आकृष्ट करना चाहूंगी. पश्चिमी दुनिया के मैग्ना कार्टा के माध्यम से समान मानव अधिकारों की अवधारणा आने से बहुत पहले, दक्षिणी भारत के एक श्रद्धेय संत और दार्शनिक बसवन्ना ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता की अवधारणा को फैलाया था.
उन्होंने लोगों की एक सभा बनाई जिसे ‘अनुभव मंतपा’ कहा जाता था, इस सभा में हर वर्ग और लिंग के व्यक्ति भाग लेते थे और अपने सामूहिक भाग्य का निर्धारण करते थे. इसी प्रकार, गणतंत्र की अवधारणा आधुनिक प्रतीत हो सकती है लेकिन लगभग 2,800 साल पहले, भारत में वैशाली में दुनिया की पहली जन प्रतिनिधि की सरकार बनी थी. मैं, इतिहास का उल्लेख केवल यह बताने के लिए कर रही हूं कि भारत और इस एशिया पैसिफिक क्षेत्र के अन्य राष्ट्र सभ्यतागत रूप से मानवाधिकारों के संरक्षक हैं. हम मानव अधिकारों में सुधार के लिए दुनिया के अन्य हिस्सों में सर्वोत्तम प्रथाओं से सीखने के लिए भी तैयार हैं.
निःसंदेह हमारी पृथ्वी का हर कोना कोई न कोई सीख देता ही है. उससे प्रेरणा लेना, उसे आत्मसात करना, उसे जीवन का हिस्सा बनना हमें आ जाए तो हम इस अलौकिक सभ्यता के सबसे सुन्दर कृति होने के सौन्दर्यबोध को इस ब्रह्माण्ड की खूबसूरती बना देंगे. भारत में मानव अधिकारों की विरासत तो सर्वे भवन्तु सुखिनः में है. सबके कल्याण में निहित थी लेकिन मैग्ना कार्टा ने जो मानव अधिकारों के लिए गंभीर लकीर खींची है वह बहुत ही अभिप्रेरक है और गहरी भी. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की मेजबानी में एशिया प्रशन मंच की बैठक के कई असरकारक परिणाम भविष्य में आएंगे लेकिन इस आयोजन का एक और पहलू यह भी है कि इससे दुनिया में मानव अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता का नया सन्देश गया है.
भारत की राष्ट्रपति ने डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की मानव अधिकारों के प्रबल समर्थक को दुहराया और बताया भी कि उन्होंने दलित वर्गों को अपने अधिकारों के लिए खड़े रहना और सम्मान के साथ जीना सिखाया. उन्होंने भारत के संविधान को आकार देने में आगे बढ़कर नेतृत्व किया जिसमें न केवल अधिकारों, स्वतंत्रता और न्याय की आधुनिक अवधारणा शामिल है बल्कि यह भारतीय लोकाचार में भी गहराई से निहित हैं.
भारत दुनिया को एक परिवार अर्थात ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के रूप में देखता है, यही धारणा हाल ही में संपन्न जी20 शिखर सम्मेलन के दौरान गूंजी. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारतीयता की, अतुल्य मानव-प्रेम की, करुणा व शील को रेखांकित किया जिसमें गाँधी और डॉ. आंबेडकर जैसे मानवाधिकारों के संरक्षक आज भी सशरीर न होकर अपने विचारों से विद्यमान हैं.
सबसे अहम् बात यह रही कि राष्ट्रपति ने अपनी ओर से और भारत की ओर से विश्वास जतलाया कि हम मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध हैं. उनकी इस उपस्थिति से और आह्वान से बहुत बड़ा सन्देश गया है और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की मेजबानी व पहल को नई गरिमा प्राप्त हुई है. उनका यह कहना कि इस सम्मेलन का आयोजन मानव अधिकारों पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने के लिए किया गया है, इसे कार्यरूप देने से सभी मनुष्यों के लिए अच्छा जीवन सुनिश्चित होगा. संहिताबद्ध कानून से अधिक, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का नैतिक दायित्व है की वह हर प्रकार से मानव अधिकार सुनिश्चित करे. साथ ही भारत के बारे में बताना कि हमारे संविधान ने गणतंत्र बनने के बाद से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को अपनाया और हमें महिला-पुरुष न्याय और जीवन और सम्मान की सुरक्षा के क्षेत्र में आगे ले जाने में समर्थ बनाया जिससे अनेक मूक क्रांतियां हो पाई. हमने स्थानीय निकायों के चुनावों में महिलाओं के लिए न्यूनतम 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित किया है. आज सुखद संयोग है कि राज्य विधानसभाओं और राष्ट्रीय संसद में महिलाओं के लिए समान आरक्षण प्रदान करने का प्रस्ताव चल रहा है.
महिला-पुरुष न्याय के लिए हमारे समय में यह सबसे परिवर्तनकारी क्रांति होगी. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने यह भी रेखांकित किया कि पिछले कुछ वर्षों में, सरकार ने आवास, शौचालय, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित करने और इस प्रकार गरीबों के सम्मान कि सुरक्षा करने के लिए कई महत्वाकांक्षी योजनाएं भी शुरू की हैं. मैं, स्वयं एक ऐसी पृष्ठभूमि से हूं जहां मुझे पता है कि कैसे अभाव, गरीबी और अशिक्षा जीवन को दयनीय बना देती है, आर्थिक और सामाजिक असमानताओं से मानव अधिकारों का उतना ही उल्लंघन होता हैं जितना अन्य किसी भी प्रकार के भेदभाव से होता है, इसके अपने आप में बड़ा मायने है.
अब एशिया पैसिफिक मानव अधिकार मंच में क्षेत्र के 26 देश जो इस महासम्मेलन में शामिल थे वे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से एक-दूसरे की विरासत और मूल्य को समझते हुए मनुष्यों की जीवन की स्थितियों में सुधार करने के लिए एक दूसरे के साथ समन्वय करें और इस फोरम से मानवाधिकारों को केंद्र में रखकर अपने उद्देश्य को यदि प्राप्त कर लें तो निश्चय ही पृथ्वी के 26 देशों में प्रसन्नता बढ़ेगी. चुनौतियाँ समाप्त होंगी. अस्तित्व और सततता के लक्ष्य सुनिश्चित होंगे.