चन्दौली जनपद की खस्ताहाल सड़के बता रही है विकास की कहानी की सच्चाई

सच की दस्तक न्यूज डेस्क चन्दौली
(प्रिंस उपाध्याय)
हमारा भारतवर्ष प्राचीन काल से ही एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में विद्दमान रहा है। वह देश जिसने अनेकोनेक अक्रांताओ के आक्रमण को सहते हुए भी ना केवल अपनी सांस्कृतिक विरासत को अपने अंचल में समेटे रखा बल्कि कई अन्य विभिन्न संस्कृतियो का पालन हार बन उनके विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।हमारा देश भावनाओं पर चलने वाला देश रहा है।वही भावनायें जिसने सहिष्णुता के स्थान पर सहजता व स्वीकार्यता पर बल दिया। और अपने इन्हीं मूलभूत स्वभाव व गुणो के कारण इस देश को महान देश होने का गौरव प्राप्त हो सका।
जब सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारत एक राजनैतिक स्वरूप की दृष्टि से स्थापित हुआ तो देश के शीर्ष नेताओ ने भारतीय आवाम के मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने को प्राथमिकता देना अपना मुख्य उद्देश्य माना। सत्ता द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं के रूप में धीरे धीरे इन उद्देश्यों की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त किया गया जिसकी बदौलत देश के विकास रथ की गाड़ी धीरे धीरे आगे बढ़नी प्रारम्भ हो गयी।
किंतु प्रश्न ये है क्या अब आज़ादी के 74 वर्षों के उपरांत भी हम उन्ही कुछ मूलभूत आवश्यकताओं से आज भी जूझ रहे है? इस प्रश्न के उत्तर से पहले हमें यह भी जानना आवश्यक है कि ये मूलभूत अवश्यकताये है क्या? और क्या इनका निवारण इस व्यवस्था के द्वारा सम्भव है?आप इनका उत्तर लोकतंत्र के महापर्व पर चुनाव प्रचार के दौरान भाषण देते भावी पदाधिकारी नेताओ की रैलियों होल्डिंग बैनर इत्यादि में देख सकते हैं। और ये वही मुद्दे हैं जिनके रुझान ना गिरने की गारण्टी 100% होने के कारण इन्हें अनेक वर्षों से नेताओ के घोषणा पत्रों में 75 वर्ष पुराना वाला ही सम्मान व दर्जा प्राप्त होता रहा है।
किसी भी देश की सड़क की स्थिति उस देश के विकास पथ के सूचकांक के रूप में देखी जा सकती है। यह हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्र के सड़कों का दुर्भाग्य ही समझा जाएगा कि चुनावो के घोषणा पत्रों में मूल आवश्यकताओं में सम्मिलित होने के उपरांत भी इस विषय को आज भी देश के कई क्षेत्रों में हाशिए पर ही रखा गया है। उत्तर प्रदेश के चंदौली संसदीय क्षेत्र के मुख्य विधान सभा क्षेत्रों को जोड़ने वाली सड़के जिनमे मुख्यतः दीनदयाल उपाध्याय नगर-चहनिया मार्ग, चहनिया-सकलडीहा मार्ग व सकलडीहा-दीनदयाल उपाध्याय नगर मार्ग की स्थिति दिन पर दिन बद से बदतर होते जा रही है। यदि आप इन क्षेत्रों का दौरा कभी किसी लो फ़्लोर के गाड़ियों के माध्यम से करने का प्रयास करेंगे तो संभवतः आपको बीच रास्ते में अपनी गाड़ी टोकन करने के लिए क्रेन की आवश्यकता भी पड़ जाए।अब तक ना जाने कितनी ही दुर्घटनायें इन मार्गों में बने गड्ढों के गर्भ में समा चुकी होंगी।बड़ा ही हस्यात्मक किंतु सत्य ही लगता है कि जिस देश ने अतीत में ना जाने कितने ही दुर्दांत अक्रमणकारियो का साहस पूर्ण सामना किया हो उसी देश के सत्ताधारियों द्वारा निर्मित मार्ग कुछ निश्चित अवधि तक भी वाहनो के भार का सामना करने में अक्षम सिद्ध हो जाते है।विडम्बना ये है कि जहाँ हमारा देश 1984 में राकेश शर्मा के नेतृत्व में चाँद पर अपना परचम लहरा आया वही उसी देश के ग्रामीण नागरिकों को ज़मीन पर ही यात्रा करने लिए ढंग की सड़के निर्मित नही हो सकी।
आश्चर्य तो तब होता है जब इन क्षेत्र के व्यक्ति इसी ख़स्ताहाल व्यवस्था को अपने जीवन का हिस्सा मान कर इसे स्वीकार कर लेते हैं और इसी कारण उन क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियो को भी समस्या निवारण की समस्याओं को टाल देने में ज़्यादा दिक़्क़तों का सामना नही करना पड़ता।
इन ख़स्ताहाल सड़कों को देख कर आप सरलता से इस बात का अनुमान लगा सकते हैं की यह लोकतंत्र की बड़ी बड़ी बाते ग्रामीण क्षेत्रों के संदर्भ में मात्र सलेबस का हिस्सा बन कर रह जाती हैं। वह लोकतंत्र जो आपको अपने अधिकारो के लिए आवाज़ बुलंद करना सिखाता है,उसकी झलक आपके विचारो में दिखना चाहिए। इन व्यवस्थाओं को देख कर कही ना कही यह कहा जा सकता है कि लोकतंत्र जो हमें किताबों में पढ़ाया गया है उसके सैद्धांतिक और व्यावहारिक निरूपण में ज़मीन आसमान का अंतर स्पष्ट होता है। यह हमारे लोगों को समझना होगा की लोकतंत्र की अवधारणा मात्र चुनाव व उसमें होने वाले मतदान तक ही सीमित नही होती। बल्कि यह हमें वह अधिकार प्रदान करती है कि वे जन प्रतिनिधि जिन पर हमने विश्वास कर उन्हें वह प्रतिष्ठित स्थान दिया है उनसे अपनी आवश्यकताओं को ले कर प्रश्न पूछ सके। उन्हें अपनी समस्याओं से अवगत करा कर उसके निवारण हेतु सचेत कर सके। किसी भी क्षेत्र का विकास उसकी आवाम की मानसिकता,वैचारिक स्पष्टता व इसी आधार पर उनके द्वारा उठाई गयी आवाज़ पर निर्भर करता है।जनसाधारण को इसे समझने की आवश्यकता है। पूर्वी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर ऐसे देखने को मिलता है कि नेताओ द्वारा जनभावनाओ को निशाना बना कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया जाता है।कभी कभी यही जनभावनाए व्यक्तिगत हित के रूप में भी उभर कर सामने आती है। और यही व्यक्तिगत हित की भावना जब अपने विकराल रूप में प्रकट होती है तो यह किसी भी देश समाज के विकास में मुख्य अवरोध बन कर खड़ी हो जाती है।
भले हमारा देश भावनाओं व मान्यताओं पर चलने वाला रहा है किंतु समय की प्रासंगिकता हमें यही सिखाती है कि भावनाओं के साथ साथ वास्तविकता का मेल भी अनिवार्य है। ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को अब भावनात्मक राजनीति से ऊपर उठ कर समय व स्वयं की अनिवार्य आवश्यकताओं की वास्तविक स्थिति का आभास करना होगा तथा यह आभास ही उनके विकास के भविष्य का आधार तय करेगा। आपके सकारात्मक राजनैतिक चेतना की जागृति ही आपके क्षेत्र के विकास के गाड़ी की गति प्रदान कर सकेगी।