साहित्य संवर्धन के नाम पर साहित्य का कबाड़ा-

0

-विनोद कुमार विक्की

■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■

वर्तमान आधुनिक वेब पत्रिका के दौर में मुद्रित पुस्तक या पत्रिका का अपना अलग ही महत्व है।इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि डिजिटल युग में भी मुद्रित पत्रिका या पुस्तक का एक विशाल समृद्ध पाठक वर्ग है।
आरएनआई यानी रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स फॉर इंडिया की वार्षिक रिपोर्ट (2016-17) रिपोर्ट के मुताबिक दैनिक/साप्ताहिक समाचार पत्र श्रेणी की बात की जाए तो वर्ष 2016-17 मे इनकी संख्या 16,993 थी तथा 97,827 पंजीकृत पत्र-पत्रिकाओ का प्रकाशन भारत में हो रहा है।यानि भारत में पंजीकृत प्रकाशनों की कुल संख्या 1,14,820 है। किसी भी भारतीय भाषा में पंजीकृत समाचार पत्र-पत्रिकाओं की सबसे अधिक संख्या हिंदी भाषा में है और यह संख्या 46,827 है।

आज इस साहित्यिक आलेख में मै चर्चा करूँगा स्तरहीन रचनाओं से प्रदूषित हो रही हिन्दी साहित्य की। लेखन एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें शोहरत है पैसा है यश है और इन सबसे बढ़कर बड़ी बात ये कि साहित्य सर्जन में अमरत्व है।कबीर, रहीम ,रसखान, कालिदास ,फणीश्वर नाथ रेनू ,प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद ,रविन्द्रनाथ टैगोर,हरिवंश राय बच्चन आदि साहित्य विभूतियाँ आज भी अपनी कालजई रचनाओं के कारण इस संसार में सदा सदा के लिए जीवित हैं।वैदिक साहित्य से विज्ञान साहित्य तक भारतीय रचनाएं विश्व साहित्य पर हमेशा ही भारी रही है ।

वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में लोगों में लिखने और दिखने की प्रवृत्ति बहुत ही बलवती हुई है खासकर सोशल मीडिया के आगमन से हर किसी में लिखने की प्रेरणा जागृत हुई है लोग अपनी भावनाओं को कविता कहानी छंद लघुकथा व्यंग्य आदि विधाओं के माध्यम से सोशल मीडिया पर अपडेट तो करते ही हैं साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ प्रेषित भी करते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि रचनाओ की स्तरीयता ही मानक पत्र-पत्रिका में उसके स्थान को निर्धारित करता है।

लिखने और छपने की होड़ सी मची हुई है।हर कोई लिख रहा है लेकिन क्या लिख रहा है ?क्यों लिख रहा है? किसके लिए लिख रहा है? इन सबसे बढ़कर स्तरहीन कृति के बावजूद कैसे छप रहा है !संभवतः इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

इनदिनों साहित्य सृजन के नाम पर कई प्रकाशन एवं साहित्यिक संस्था साहित्य का कबाड़ा करने पर तुले है।ऐसे प्रकाशन साझा संकलन के नाम पर सशर्त विज्ञापन निकालते है कि प्रति लेखक प्रति 3-5 पेज दो से तीन हजार रुपए की दर से सहयोग राशि देकर अपनी रचनाओं को संकलन में छपा सकते है या फिर ये प्रकाशन डेढ़ होशियारी दिखाते हुए निःशुल्क रचनाओं के प्रकाशन के नाम पर लेखकीय प्रति नहीं देने कि अनिवार्य शर्त रखते है तथा लेखकों को न्यूनतम तीन से पाँच प्रति खरीदने की बाध्यता तय करते है।

अर्थात सहयोग राशि ना सही किंतु पुस्तक खरीदने की बाध्यता ले देकर आर्थिक शोषण की स्थिति का ही दूसरा पहलू होता है।फिर सहयोग राशि वसूल कर ये प्रकाशन गिनती की उतनी ही पुस्तक छापते है जितने कि पुस्तक के सहयोगी रचनाकार।

रचनाएँ कैसी भी हो पैसा पेमेंट करने भर की देर है साहित्यिक कसौटी पर निम्न से निम्न स्तर की रचनाओं को भी पुस्तक का रूप दे दिया जाता है। भले ही उस पुस्तक का पाठक सिर्फ सहयोगी रचनाकार ही क्यों ना हो किंतु पुस्तक सीमित संख्या में प्रकाशित हो ही जाती है।इन दिनों पढ़ने की अभिलाषा रही नहीं लिखने और दिखने का फैशन परवान चढ़ चुका है। साहित्य जगत को सृजन के नाम पर क्या देना चाह रहा है! इस बात की चिंता भला किसे है।

प्रकाशकों के लोक लुभावन झांसा में नवोदित रचनाकार एवं साहित्य जगत में जल्द से जल्द स्थापित होने की चाह रखने वाले रचनाकार ज्यादा फंसते है।स्थापित पत्र-पत्रिका जहाँ वरिष्ठ व स्थापित लेखकों का एक क्षत्र राज्य है, के संपादकों की नवोदित रचनाकारों के प्रति उपेक्षा भी साझा संकलन गिरोह के फलने फूलने की एक प्रमुख वजह है।
ऐसी पत्रिकाओं में रचना के स्तरीयता की बजाय रचनाकार के नाम का बोलबाला है।

वहीं कुछ पत्रिकाओं के संपादक सिर्फ पत्रिका के सदस्यों व संरक्षकों की रचनाओं को ही अपनी पत्रिका में तवज्जों देता है।बार बार रचनाओं के प्रेषण के बाद ना छपने की हताशा में नवोदित रचनाकार साझा संकलन के नाम पर धंधा कर रहे प्रकाशक के मकड़जाल में फंस जाते है।

साहित्य संवर्धन के नाम पर आर्थिक संवर्धन के इस खेल का परिणाम ही है कि वर्तमान में रोज नए प्रकाशन का जन्म हो रहा है।साहित्य का कबाड़ा करने वाले कुकुरमुत्ते की तरह उग आए कुछ ऐसे भी संस्थान है जिन्होंने साहित्य के नाम पर दिस दैट लिखने वाले तथाकथित लेखकों को सम्मानित करने का भी ठेका ले रखा है।
ये मूलतः अपनी पत्रिका या साझा संकलन वाली पुस्तकों के लोकार्पण समारोह में कम्प्यूटर से निकाली गई एक रंगीन प्लास्टिक कोटेड पेपर पर रचनाकार का नाम उल्लेखित या हस्तलिखित प्रशस्ति पत्र सम्मान के रूप में प्रदान करती है।

यह सम्मान थोक के भाव में सहयोगी रचनाकारों को ही दिया जाता है।पैसे के बूते रचना छपवाने वाले एवं सम्मान पाने वाले आत्ममुग्ध लेखक सम्मान प्राप्ति की घोषणा सोशल मीडिया से प्रिंट मीडिया में शेयर करने से नहीं चूकते।समाचार पत्रों में सम्मान प्राप्ति की खबरें भी आ जाती है किंतु समाचार प्रकाशित करने वाले पत्रकार या सम्मान प्राप्त करने वाले लेखक इस बात का अंदाजा कतई नहीं लगा पाते कि आखिर कम्प्यूटर से निकाली गई थोक के भाव में प्रशस्ति पत्र एवं बाँटने वाली संस्था कितनी प्रमाणिक है।

ढेर सारे ऐसे समाचार पत्र भी है जो रचनाकारों की मेल से प्राप्त रचनाओं को बिना पढ़े बिना संपादन किए जस का तस काॅपी पेस्ट कर अपने दैनिक/साप्ताहिक समाचार पत्र के साहित्य स्तम्भ में प्रकाशित कर देते हैं।

हजारों पत्र-पत्रिका में से ढेर सारी ऐसी पत्र- पत्रिकाएं है जहाँ ऐसी-वैसी हर रचनाएं छप ही जाती है।सारी की सारी रचनाओं का छप जाना लेखकों मे भ्रम पैदा करता है तथा वह स्वमूल्यांकन नहीं कर पाता कि लेखन के मानदंड पर उसकी रचनाएँ किस स्तर की है।प्रतिदिन दर्जनों लेखक जन्म ले रहे हैं। रोज सैकड़ों पुस्तक छप रही है।

लेकिन पाठकों व साहित्य सेवियों के उपयोग की पढने लायक कितनी है ? लेखन पाठकों की कसौटी पर कितना खरा है ?कितनी प्रति मार्केट में उपलब्ध है?लेखन एक ऐसी विधा है जिसमें हर कोई रूचि लेता है किंतु छपने की चाह में कुछ भी लिखकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना क्या साहित्य का आयाम है! स्तरहीन पत्र-पत्रिका में छप जाना मात्र साहित्यकार का दर्ज़ा प्रदान करता है!स्तरहीन समाचर पत्र में प्रकाशित रचनाओं को सोशल मीडिया पर प्रदर्शित कर बधाई व लाइक हासिल कर लेना ही रचना धर्मिता का उद्देश्य है।

तो क्या सारा दोष पैसे लेकर कुछ भी छापने वाले प्रकाशकों का है! अथवा आम कटहल लिखकर रचना का नाम देने वाले लेखक साहित्य की गिरावट के लिए जिम्मेदार है! या फिर मेल पर प्राप्त रचनाओं को काॅपी पेस्ट करने वाले स्थानीय दैनिक पत्र के संपादक! आख़िर किन्हें दोषी ठहराना जायज़ है!

वर्तमान स्थिति को देखते हुए ये कहना गलत नहीं है कि अब वो समय दूर नहीं जब साहित्य माफिया के चुंगल में स्वस्थ साहित्य सृजन की कल्पना इतिहास बन कर रह जाएगी।

Sach ki Dastak

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x