‘मोदी’ जादू से हारा बंगाल का जादू ✍️ ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना

0

 समीक्षा : मोदी मैजिक बनाम बंगाल मैजिक 

– ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 

न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक 

 

राजनीति का मूल मंत्र है साम, दाम, दंड, भेद और गद्दारी की वो अदृश्य ओढ़नी जिसमें छिपकर सियासत की वो मीठी और तीखी चालें चलीं जा सकतीं हैं जिसकी कोई हद नहीं। वही हद इस बार लोकसभा चुनाव में बंगाल में भगवा का रंग और गाढ़ा होते हुए देखा गया जिस करिश्मे से ममता दीदी समेत समूचा विपक्ष भौचक्का रह गया। और तो और यह लोकसभा चुनाव – 2019 की प्रचंड विजय सुनामी पूरे देश में एनडीए के लिए एक इतिहास बन गया। देखने लायक बात तो यह थी कि पूरा विपक्ष सिर्फ़ मोदी हटाओ पर ही सिमट कर दम भरता नज़र आया जबकि विपक्ष दूसरे कई मुद्दों पर नहीं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी पर ही एकजुट होकर अपनी हुंकार भर सकता था पर विपक्ष को व्यक्तिगत मोदी पर गाली वाण चलाना बहुत मंहगा पड़ा। उन्हें समझ ही नहीं आया कि उनके गाली वाणों पर चढ़कर अपनी समस्त जनसेना के साथ इस चुनावी महासागर को पार करते चलते गये। अब विपक्ष को इस महाविरोधाभाष का गणित समझ आया होगा तो बहुत देर हो चुकी है और उनकी जनसामाजिक और राजनीतिक विश्वास की रिक्तता को पाटना अब उनके लिए आसान नही होगा। 
 लोकसभा चुनाव 2019 पूरे विश्व के लिए कौतुहल का विषय साबित हुआ क्योंकि जब एक ओर भारतीय जनता पार्टी के सारे राजनीतिक विरोधियों ने हाथ मिला लिया था उसी तरह बंगाल में ममता बनर्जी के हाथों सरकार गंवाने वाली वापमंथी पार्टियों के कार्यकर्ताओं ने अपनी दुश्मन समान भाजपा का साथ देकर ममता को तगड़ी शिकस्त दे देकर, ममता दीदी के सियासी किले में जोरदार सेंध लगा दी। जहां, 42 लोकसभा सीटों वाले बंगाल में 2014 में 2 सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा आज 2019 में 18 सीटों पर दमदार जीत दर्ज कर चुकी है जबकि 34 सीटों पर कब्जा करने वाली ममता बनर्जी नित तृणमूल कांग्रेस 12 सीटें खोकर 22 पर आ गिरी हैं। 
सच कहें तो सबसे बुरी दशा वाममोर्चा की है। राज्य में 34 सालों तक राज करने वाली वामपंथी पार्टियों का सूपड़ा साफ हो गया है। 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में देशभर में कांग्रेस की लहर के बावजूद पार्टी ने 6 सीटें जीत ली थी। लेकिन इस बार राज्य की 42 में से एक भी सीट पर खाता नहीं खोल सकी और अधिकतर सीटों पर तीसरे या चौथे नंबर पर रही है। जबकि कांग्रेस जिसने 2014 में 4 सीटें जीती थी, इस बार 2 पर बिखर गई।  बंगाल के राजनैतिक विशेषज्ञों की मिलीजुली राय यह कहती है कि सूबे में भले ही भाजपा ममता बनर्जी से 12 सीटें छीनने में सफल रही है लेकिन मत प्रतिशत पर गौर करें तो 2014 के लिहाज से तृणमूल कांग्रेस के मत प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई है। 2014 में तृणमूल कांग्रेस को 39.05% वोट मिले थे और 34 सीटों पर कब्जा जमाया था जबकि इस बार 43.28% वोट मिले हैं लेकिन सीटों की संख्या घटकर 22 हो गई है। तृणमूल कांग्रेस के वोट में 4.25% की बढ़ोतरी दर्ज की गई लेकिन 12 सीटें कम हो गई हैं। वहीं
बीजेेपी को 2014 में 17.02% वोट मिले थे और केवल 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि इस बार भाजपा का मत प्रतिशत बढ़कर 40.25% हुआ है और 18 सीटों पर धाक जमा चुकी है। यानी भाजपा के मत प्रतिशत में 23.23% की बढ़ोतरी हुई है और 16 सीटें बढ़ी हैं। यह भी विचारणीय है कि इस बार मत प्रतिशत बढ़ने के बावजूद भी तृणमूल की सीटें घटने की आखिर! वजह क्या है? तो इसका सही जवाब यह हो सकता है कि माकपा के वोटों का भाजपा की ओर जबर्दस्त पलायन। राज्य में 35 सालों तक शासन करने वाली वामपंथी पार्टियों की मुख्य पार्टी माकपा का मत प्रतिशत केवल 6.28% है और बाकी घटक दल जैसे फॉरवर्ड ब्लॉक (0.42), सीपीआई (0.40) और आरएसपी (0.36) का मत प्रतिशत जोड़े तो यह आंकड़ा बढ़कर 7.46% पर पहुंच रहा है। जबकि 2014 में यह 29.71% था। यानी माकपा का मत प्रतिशत 22.25% घटा है। इसीलिए सीटों के हिसाब से माकपा का भी सियासी किला पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। यही हाल देेश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का भी हुआ क्योंकि कांग्रेस ने इस बार राज्य में 5.61% वोट हासिल किया है जबकि 2014 में कांग्रेस को 9.58% वोट मिले थे। यानी कांग्रेस के मत प्रतिशत में भी 3.97% की कमी आई है। इसीलिए कांग्रेस चार सीटों (बहरामपुर, जंगीपुर, मालदा उत्तर और मालदा दक्षिण) में से केवल दो (बहराममपुर और मालदा दक्षिण) पर ही ठहर सकी। गौरतलब हो कि लोकसभा चुनाव 2019 में राष्ट्रवाद सिर चढ़कर बोला जिसके प्रभाव में युवाओं ने मोदी को वोट नहीं बल्कि अपना विश्वास ही समर्पित कर दिया। इस कारण भाजपा की शानदार जीत में नए मतदाताओं की एक अहम भूमिका सिद्ध हुई। अगर भाजपा और तृणमूल के बढ़े हुए मत प्रतिशत को जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा है (23.23+4.25) 27.48%। इसी तरह से अगर माकपा और कांग्रेस के घटे हुए वोट को जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा है 26.22% जो भाजपा और तृणमूल के बढ़े हुए मत से 1.26 प्रतिशत कम है। 1.26% मतदान उन युवाओं का है जिन्होंने पहली बार मतदान किया। चुनाव आयोग ने बताया था कि इस बार पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक 12 लाख मतदाता पंजीकृत हुए थे जो राज्य की कुल आबादी (करीब 10 करोड़) के 1.2 फीसदी हैं। इन चौंकानेवाले आंकड़ों से इस लोकसभा चुनाव महासंग्राम की तस्वीर बिल्कुल साफ है कि माकपा और कांग्रेस का घटा हुआ वोट भाजपा और तृणमूल में विभाजित हो गया है। अब अगर पारंपरिक मतदाताओं की बात की जाए तो राज्य में कांग्रेस के पारंपरिक मतदाताओं को तोड़कर ही ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी बनाई थी इसलिए बहुत हद तक यह संभव है कि तृणमूल का जो 4.25% मत बढ़ा है वह कुछ कांग्रेस और कुछ नए मतदाताओं से मिला है। नए मतदाताओं में से अधिकतर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किए हैं क्योंकि सबसे अधिक नए मतदाता सीमावर्ती क्षेत्रों में पंजीकृत हुए थे और भारत बांग्लादेश सीमा से सटे लोकसभा क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी में बहुत अच्छी जीत हासिल की है। वहीं दूसरी तरफ  माकपा के मत प्रतिशत में आई पूरी कमी भाजपा के खाते में चली गई है। यानी राज्य में वामपंथी मतदाताओं ने पूरी तरह से टूट कर भाजपा के पक्ष में मतदान कर दिया और यही ममता बनर्जी के लिए जीती हुई सीटें भी हारने की वजह बनी है। लेकिन यह पहली बार नहीं होगा कि लेफ़्ट का वोटर भाजपा को वोट कर रहा है। अगर हम पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड देखें तो हमें पता चलेगा कि लेफ़्ट का वोटर पिछले दस सालों में तृणमूल की तरफ़ भी खिसका है और भाजपा की तरफ़ भी मुड़ा है और सच तो यह है कि 2014 में ही वामपंथी वोटों का पलायन होना शुरू हो गया था और इन अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि जब पहली बार वामपंथी कार्यकर्ताओं ने भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया था वह साल था 2014 का जब 2009 के मुक़ाबले वामपंथ का शेयर 13% गिरा (43 से 30) लेकिन तृणमूल का शेयर केवल 9% बढ़ा (31 से 40)। इसका मतलब क्या हुआ बाक़ी का 4% कहाँ गया? उस साल कांग्रेस का वोट शेयर भी पहले के मुक़ाबले 3% कम हुआ। स्पष्ट है कि लेफ़्ट और कांग्रेस का यह मिलाजुला 7% वोट जो तृणमूल में नहीं गया, भाजपा में गया जिसका वोट शेयर उस साल पहले के मुक़ाबले 11% बढ़ गया। यानी कुल मिलाकर कहा जाए तो वामपंथियों ने ममता के हाथों 2011 में अपनी सरकार गंवाने का बदला भाजपा का साथ देकर लिया है। सबसे खास बात यह है कि अगर यहीं स्थिति बनी रही तो ममता दीदी के लिए 2021 का विधानसभा चुनाव काफी जद्दोजहद भरा होगाा मगर इससे पहले तो ममता दीदी अपना माथा पकड़ कर अपने सियासी किले की बीजेपी से लगी सेंधमारी पर शिकंजा कसेगीं या फिर वह यह सोच-सोच कर परेशान होगीं कि आखिर! मोदी में ऐसा कौन सा जादू था जिसने बंगाल के पुराने जमे जमाये मेरे जादू को मात देे दी। वहीं मेरी, बीजेपी के लिए हमेशा बंजर रहने वाले बंगाल की जनता जिसे मैंने मोदी को वोट देने से सख्ती से रोका था उसने मेरे धुरविरोधी मोदी पर दिल खोलकर वोटों की बारिश कर दी? 

Sach ki Dastak

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x