Galwan Valley Dispute : भारत-चीन सीमा पर मौजूद इस घाटी का इतिहास पढ़ें

India China Border Galwan Valley Dispute: पूर्वी लद्दाख में चीन और भारत के बीच सैन्य तनाव का केंद्र बनी गलवन घाटी पिछले कई दिनों से चर्चा में है। सोमवार रात इस विवाद ने खूनी रंग ले लिया, जिसमें भारतीय सेना के एक अधिकारी समेत तीन जवान शहीद हो गए हैं और चीनी सेना के 43 जवान मारे गए हैं और घायल हुए हैं। करीब 45 साल पहले भी इसी सीमा पर भारत-चीन सेना के बीच खूनी संघर्ष हुआ था। इसके पहले एलएसी पर भारतीय जवान की मौत 45 वर्ष पहले 1975 में हुई थी। तब चीन के सैनिकों ने भारतीय सीमा में पेट्रोलिंग कर रहे असम राइफल्स के जवानों पर घात लगा कर हमला किया था और चार भारतीय जवानों की मौत हो गई थी।
बीती रात भारतीय क्षेत्र गलवन में चीन के जवानों से हुई झड़प के बाद दो भारतीय जवानों के शहीद होने के बाद सीमा पर तनाव बढ़ गया है।
ये सब कुछ ऐसे समय में हुआ है जब कुछ ही दिन पहले चीन ने अपने जवानों को इस क्षेत्र से करीब डेढ़ किमी पीछे बुला लिया था। इन बदले हालातों के बाद केंद्र में उच्चस्तरीय बैठकों का दौर भी चल रहा है। आपको बता दें कि जिस क्षेत्र में यह घटना हुई है वो पूरा इलाका सामरिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। हालांकि ये पहली बार नहीं है कि चीन की तरफ से भारतीय सीमा में घुसपैठ की कार्रवाई की गई हो, वह पहले भी इस तरह की कार्रवाई को अंजाम दे चुका है, जिसका भारत ने भी हर बार मुंह तोड़ जवाब दिया है।
आपको बता दें कि गलवन क्षेत्र इस पूरे इलाके में सबसे ऊंचाई पर है। यहां से काफी दूरी तक नजर रखी जा सकती है। इसके अलावा यहां से उस सड़क को भी आसानी से निशाना बनाया जा सकता है जहां से भारतीय सेना के जवान और रसद आदि की सप्लाई होती है। इसके उत्तर में दौलत बेग ऑल्डी सेक्टर है, जो भारतीय सीमा के अंदर का क्षेत्र है और जहां पर पहले भी चीन की तरफ से घुसपैठ की कोशिश हो चुकी है।
ये यहां से करीब 102 किमी की दूरी पर स्थित है और यहां के बीच की दूरी करीब 3-4 घंटे के बीच तय होती है। इससे कुछ दूर उत्तर में भारत की सीमा चीन के शिजिंयाग प्रांत से लगती है।
इसके दक्षिण में पैंगॉन्ग शॉ मौजूद है जो करीब 200 किमी दूर है और ये रास्ता करीब 6-7 घंटे का है। पैंगॉन्ग शॉ भी उन्हीं जगहों में से एक जगह है जहां पर चीनी जवानों ने पहले भी कई बार घुसपैठ की कोशिशों को अंजाम देने की कोशिश की है। आपको यहां पर ये भी बता देते हैं कि यहां स्थित पैंगॉन्ग लेक का एक हिस्सा भारत में है तो दूसरा हिस्सा चीन में आता है। गलवन से हॉट पनामिक हॉट स्प्रिंग की दूरी भी करीब 130 किमी है। ये तीनों ही जगह वो हैं जो सामरिक दृष्टि से काफी अहम हैं।
गलवन की अहमियत की बात करें तो भारत ने हाल ही में यहां पर सड़क निर्माण किया है। इसका चीन की तरफ से काफी विरोध किया गया था। भारत ने भी इस विरोध को दरकिनार करते हुए साफ कर दिया था कि ये क्षेत्र भारतीय सीमा के अंतर्गत आता है, इस लिहाज से इसमें चीन का हस्तक्षेप किसी भी सूरत से स्वीकार्य नहीं होगा। गलवन वैली की ऊंचाई ही इस क्षेत्र को सामरिक दृष्टि से अहम बनाती है। गलवन से कुछ ही दूरी से अक्साई चिन का वो क्षेत्र शुरू हो जाता है जिसको 1962 से चीन ने अवैध रूप से हथिया रखा है। इससे पहले ये भारतीय सीमा के अंतर्गत आता था। आपको बता दें कि इस पूरे क्षेत्र में चीन से लगती भारतीय सीमा लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल कहलाती है।
गलवन की ऊंचाई इतनी अधिक है कि यहां पर हर वक्त सैनिकों की मौजूदगी नहीं रहती है। सर्दियों में जब यहां पर पूरे क्षेत्र में भीषण बर्फबारी होती है तब भारतीय सैनिक वहां से निचले इलाकों में आ जाते हैं। रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी के मुताबिक यहां पर हर रोज जवानों की पेट्रोलिंग भी नहीं होती है।
इसका ही फायदा चीन की तरफ से इस बार उठाया गया था और वो भारतीय सीमा के अंदर दाखिल हो गए थे। उनकी मंशा यहां पर कब्जा कर इस पूरे इलाके में भारतीय सेना की आवाजाही पर निगाह रखना था। चीन की तरफ से इस खतरनाक प्लान को अंजाम दिया गया उसके मुताबिक वे कारगिल की ही तर्ज पर काम कर रहे थे1
इस घाटी का इतिहास देखें तो पता चलता है कि गलवन समुदाय और सर्वेंटस ऑफ साहिब किताब के लेखक गुलाम रसूल गलवन इसके असली नायक हैं। उन्होंने ही ब्रिटिश काल के दौरान वर्ष 1899 में सीमा पर मौजूद नदी के स्रोत का पता लगाया था। नदी के स्रोत का पता लगाने वाले दल का नेतृत्व गुलाम रसूल गलवन ने किया था। इसलिए नदी और उसकी घाटी को गलवन बोला जाता है। वह उस दल का हिस्सा थे, जो चांग छेन्मो घाटी के उत्तर में स्थित इलाकों का पता लगाने के लिए तैनात किया गया था।
गलवन समुदाय का इतिहास
कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले एक समुदाय को गलवन बोला जाता है। कुछ स्थानीय समाज शास्त्रियों के मुताबिक इतिहास में घोड़ों को लूटने और उन पर सवारी करते हुए व्यापारियों के काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता रहा है। कश्मीर में जिला बड़गाम में आज भी गलवनपोरा नामक एक गांव है। गुलाम रसूल गलवन का मकान आज भी लेह में मौजूद है। अंग्रेज और अमेरिकी यात्रियों के साथ काम करने के बाद उसे तत्कालिक ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर का लद्दाख में मुख्य सहायक नियुक्त किया था। उसे अकासकल की उपाधि दी गई थी। ब्रिटिश सरकार और जम्मू कश्मीर के तत्कालीन डोगरा शासकों के बीच समझौते के तहत ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर व उसके सहायक को भारत, तिब्बत और तुर्कीस्तान से लेह आने वाले व्यापारिक काफिलों के बीच होने वाली बैठकों व उनमें व्यापारिक लेन देन पर शुल्क वसूली का अधिकार मिला था।
वर्ष 1925 में गुलाम रसूल की मौत हो गई थी। गुलाम रसूल की किताब सर्वेंटस ऑफ साहिब की प्रस्ताना अंग्रेज खोजी फ्रांसिक यंगहस्बैंड ने लिखी है। वादी के कई विद्वानों का मत है कि अक्साई चिन से निकलने वाली नदी का स्नोत गुलाम रसूल ने तलाशा था। यह सिंधु नदी की प्रमुख सहायक नदियों में शामिल श्योक नदी में आकर मिलती है।
यंग हसबैंड ने रसूल की किताब में लिखा है कि हिमालयी क्षेत्रों के लोग मेहनती और निडर होते हैं। वह हमेशा जान खतरे में डालने को तैयार रहते हैं। रसूल के पूर्वज कश्मीरी थे। उनके बुजुर्ग जिसे काला गलवान अथवा काला लुटेरा कहते थे, काफी चालाक और बहादुर थे। वह किसी भी भवन की दीवार पर बिल्ली की तरह चढ़ जाते थे। ये कभी एक जगह मकान बनाकर नहीं रहते थे। गुलाम रसूल ने किताब में लिखा है कि उसके पूर्वज अमीरों को लूटकर, गरीबों की मदद किया करते थे। किताब में एक वाक्य का जिक्र करते हुए गुलाम रसूल ने लिखा है कि एक बार महाराजा ने विश्वस्त के साथ मिलकर मेरे पूर्वज (पिता के दादा) को पकड़ने की योजना बनाई। उन्हें एक मकान में बुलाया गया, जहां वह एक कुएं में गिर गए और पकड़ में आ गए। उन्हें फांसी दे दी गई थी। इसके बाद उनके समुदाय के बहुत से लोग वहां से जान बचाकर भाग निकले।
रसूल का मकान आज भी लेह में है
इतिहास में पीएचडी कर रहे अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के शोधकर्ता वारिस उल अनवर के अनुसार, गलवन कश्मीर में रहने वाला पुराना कबीला है। गुलाम रसूल के पिता कश्मीरी और मां बाल्तिस्तान की रहने वाली थीं। गुलाम रसूल अंग्रेज शासकों द्वारा भारत के उत्तरी इलाकों की खोज के लिए नियुक्त किए जाने वाले खोजियों के साथ काम करता था। रसूल का मकान आज भी लेह में उसकी कहानी सुनाता है।
इनटू द अनट्रैवल्ड हिमालय
ट्रैवल्स, टैक्स एंड कलाइंब के लेखक हरीश कपाडिया ने अपनी किताब में लिखा है कि गुलाम रसूल गलवन उन स्थानीय घोड़ों वालों में शामिल था, जिन्हें लार्ड डूनमोरे अपने साथ 1890 में पामिर ले गया था।
वर्ष 1914 में उसे इटली के एक वैज्ञानिक और खोजी फिलिप डी ने कारवां का मुखिया बनाया था। इसी दल ने रीमो ग्लेशियर का पता लगाया था। लद्दाख में कई लोग दावा करते हैं कि गलवन जाति के लोग आज की गलवन घाटी से गुजरने वाले काफिलों को लूटते थे। इसलिए इलाके का नाम गलवन पड़ गया।