कविता : मृगतृष्णा

लोगों की शायद भूख मिटती नहीं है,
तब तक
मृत्यु दरवाजा खटखटाती नहीं है,जब तककाम, क्रोध, मद, लोभ रहता है,निरंतर हृदय से मस्तिष्क तकधोखे की जंजीर जकड़े रहती है,उनकी नैतिकता कोक्या मृत्यु, कौन मृत्यु सुंदरी है,कहता रहता है लालची मन निरंतरमृत्यु की शैया पर लंकेश था सोयाफिर भी विजय लालच नहीं उसका गयाइंसानों की यह कैसी मृगतृष्णा है,कोई आज तक इसे समझ ना सका हैजहां देखो, मनुष्य तृष्णा से परिपूर्ण,इधर-उधर भटकता रहता हैपर आज तक तृष्णा उसकी समाप्त नहीं हुई हैआखिर कैसी है यह तृष्णा,ओह! यह मनुष्य की मृगतृष्णा।।,,,,,,,,__ दिनेश प्रजापत”दिन”सांचौर, जालौर (राज.)
आभार- सच की दस्तक समूह को🙏🙏